सादर अभिवादन
आज एक ही ब्लॉग की अंतिम प्रस्तुति
वजह जो भी हो ...
नए अंक का आगाज़
एक नए अंदाज में..
यादों के काफ़िले में नायाब चीज़े ही हो , जरूरी नहीं ...
पर रेंगती ज़िन्दगी में बहार जरूर ले आती है..-निवेदिता दिनकर
#बांस और #वंश
हिंदू धर्मावलंबियों के लिए प्राकृतिक पूजा त्योहार, शादी विवाह से लेकर श्राद्ध तक में दुनिया के सभी धर्मावलंबियों के लिए अनुकरणीय है।
शादी विवाह में गांव में आज भी विवाह से पहले आम के बगीचे में जाकर योग मांगना। उसके अलावा कई विधान है जो प्राकृतिक के इर्द-गिर्द घूमते हैं। जिसमें पेड़ पौधे, कुआं, तालाब शामिल है।
इसी तरह शादी विवाह के बाद बांस की बसेड़ी और वंश का संयोग भी देखने को मिलता है।
दूल्हे का मौरी से लेकर शादी विवाह में लगा हल्दी और अन्य शादी विवाह में गैर जरूरी सामान शादी के बाद बांस के बसेड़ी में जाकर महिलाएं रख आती हैं। जाते हुए महिलाएं भी गीत गाती हुई जाती है और लौटते हुए भी गीत गाते हुए लौटती है
प्राकृतिक पूजा के तौर पर यह माना जाता है कि बांस का वंश वृद्धि में सर्वाधिक सहयोग है और यह कामना लोग करते हैं कि जिस तरह बांस का वंश बढ़ता है वैसे ही परिवार का बढ़े। गांव में बांस का दातुन करना आज भी प्रतिबंधित है। इसका मुख्य कारण वंश वृद्धि बांस की तरह होने की कामना है। इसी तरह की एक तस्वीर संलग्न है।
अब देखिए आज की पाँच रचनाओं के शीर्षक
आज का नयापन
भाया/अभाया
आप ही वताएँगे
सादर
भाया/अभाया
आप ही वताएँगे
सादर
..
"सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पटल पर अनेक रचनाओं को पढ़ने का सौभाग्य मिला। हर रचना अपनेआप में नया सन्देश देती हुई। बहुत कुछ जानने एवं सीखने को मिला। सभी रचनाकार बन्धुओँ एवं पटल के संचालक बन्धु-बान्धवों को अनेकानेक शुभकामनाएँ एवं नमन..
ReplyDelete-आनन्द विश्वास।
आभार, विश्वास दादा
Deleteसादर..
बहुत सुंदर सदाबहार अंक,सारी रचनाएँ नए नए संदेश देती हुई,मुखरित मौन की आभा को बढ़ा रहीं। आपके श्रमसाध्य कार्य को मेरा नमन आदरणीय दीदी 🙏💐
ReplyDeleteसच में
Deleteआभार ढेर सारा..
सादर..
मुखरित मौन में अपनी पोस्ट देखकर मन प्रफुल्लित हो गया,
ReplyDeleteएक ब्लाग नहीं खुल रहा, बाकी सभी रचनाएं उत्कृष्ट।
मेरी सवैया की पोस्ट को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।
सादर।
आभार..
Deleteसारा खुल रहा है
सादर..
जी ! नमन संग आभार आपका .. आज भी मेरी बतकही को यहाँ जगह देने के लिए .. उस दिन के आज्ञा का पालन आज हमने किया है, "चिप्पणियाँ" चिपका कर , जो, जहाँ, जैसी हमें समझ आयी, जहाँ नहीं आयी, वहाँ मेरी मूर्खता की पोल ना खुल जाए, इसलिए मौन रहा .. बस यूँ ही ...
ReplyDeleteआभार,
Deleteसादर..
"मुखरित मौन" की बेहतरीन प्रस्तुति आदरणीया दी,सादर नमन
ReplyDeleteअसाधारण रचनाओं का संकलन साँझ को कुछ अधिक सुन्दर बना गया - - असंख्य आभार स्थान देने हेतु। आदरणीया यशोदा दी।
ReplyDelete" यादों के काफ़िले में नायाब चीज़े ही हो , जरूरी नहीं ... " - यशोदा जी, मेरी समझ में तो .. दरअसल यूँ देखा जाए तो "नायाब" की ना तो कोई परिभाषा है और ना ही कोई सीमा रेखा .. शायद ...
ReplyDeleteइंसान यूँ तो जीवन भर, चलना सीखने के बाद कभी थिरकता, कभी मटकता फिरता है, क़ुदरत द्वारा प्रदान की गई हवा से 'ऑक्सीजन' अपने फेफड़ों में भरता-निकालता रहता है, पर जब सच में "रेंगती ज़िन्दगी" महसूस होती है तो 'ऑक्सीजन' नायाब लगने लगता है, हाल की त्रासदी ज्वलंत उदाहरण है .. शायद ...
इसलिए आप नायाब की चिन्ता कतई मत कीजिए, किसी याद का नायाब होना, याद से ज्यादा, याद करने वाले इंसान की मनःस्थिति पर निर्भर करता है .. शायद ...
(जैसे हिन्दूओं के लिए दुर्गा पूजा में उड़हल का फूल नायाब हो जाता है, तो सावन में बेलपत्र और धतूरे का फूल व फल)