Sunday, March 14, 2021

660 ..वह ‘मैं’ जो असल में ‘तू’ है

सादर अभिवादन
आज दिव्या की याद आ रही है
वो आज इन्दोर में है
वो होती तो प्रस्तुति वही बनाती
कल पेपर है उसके ट्यूशनर बच्चों का
चलिए आज मैं ही सहीं...

पासपोर्ट
वीज़ा की चिंता
उसे सताती है,
माँ उदास हो
उड़ता हुआ
जहाज दिखाती है,
धन दौलत
सबकुछ
लेकिन दिनचर्या दासी है।


उम्र का एक कीमती हिस्सा
निकल जाता है
चटके दायरों के
खाँचें भरने में
चिंतन तो यही कहता है-
'सर्वे भवन्तु सुखिनः'
या फिर
'वसुधैव कुटुम्बकम'


वह ‘मैं’ जो असल में ‘तू’ है 
तो क्यों वह अब खुद को खोजेगा?
बल्कि जहाँ नहीं पाता था तुझे पहले 
वहाँ भी तेरे सिवा कुछ नहीं पाता 
क्योंकि आँखें जो बाहर देखती हैं 
वह  भीतर ही तो दिखता है 


हठ करती है प्रेयसी,मुँदरी दे दो नव्य।
त्रिया चरित को जानिए,खर्च करें फिर द्रव्य।।

नीर थाल में हो रहा,हार जीत का खेल।
मुँदरी की फिर हार में ,बढ़ा दिलों का मेल।।


दर्पण, अक्श दिखाएगा,
तुझसे वो जब, नैन मिलाएगा,
पूछेगा सच, क्यूँ छोड़ा तुमने पथ?
डुबोई क्यूँ, तुमने इक नैय्या,
साहिल पर, लाकर!


एक अंतिम रचना दिव्या की लिखी
कहती थी उँगलिया..
जो मेरे मन में आ रही.. 
जा रही उसी अक्षर पर..
तुझे क्या..
रहना सुधारते.. 
बाद टाईप होने के..
करने दे टाईप मुझे ..
मेरे मन की... 
छोड़ दी थक-हारकर 
आधा अधूरा..
...
आज बस..

सादर 

7 comments:

  1. बहुत अच्छी रचनाएं हैं और सुंदर चयन। बहुत बधाई सभी साथियों को।

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  2. शुभ संध्या,
    सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई। प्रसन्न हूँ कि मैं भी इस अंक में शामिल हूँ ।।।।।

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  3. बेहतरीन संकलन । प्रस्तुति में सृजन को साझा करने के लिए सादर आभार यशोदा जी ।

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  4. हार्दिक आभार आपका।सादर अभिवादन

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  5. पठनीय रचनाओं के सूत्रों की खबर देता सुंदर अंक, आभार यशोदा जी !

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  6. सुन्दर अंक यसोदा जी आभार आपका जो सुन्दर रचनाये एक जगह पढ़ने मो मिल जाती है।

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