सादर वन्दे
वहां भी हम
यहां भी हम
समझिए न
हमें आप कम
अब रचनाएँ...
आइए देखें...
अब रचनाएँ...
आइए देखें...
गाँव के बाहर पीपल के नीचे
अँधेरी रात में ओढ़े चाँदनी कंधों पर
मुखमंडल पर सजाए सादगी की आभा
शिलाओं को सांत्वना देता-सा लगा।
तुम कवि हो इसलिए दुःखी हो,
तुम कुछ ज़्यादा ही सोचते
हो, तुम्हारे सभी दोस्त
हैं सिर्फ़ काल्पनिक
चरित्र, रात -
सोचा था, रख लूँगा, मन के घेरों में,
संजो लूँगा, कुछ तस्वीरें, ख्वाबों के डेरों में,
पर, खुश्बू थे वो सारे,
निकले, बंजारे,
बहते, नदियों के धारे,
पवन झकोरे,
पल भर, वो कब ठहरे,
निर्झर नैनों में, ख्वाब सुनहरे!
वो नदी क्या सोचती होगी
जिसमें लहराती मिली थी धानी चुनर
उस किशोरी की
जिसने 15 की उम्र में किया था प्रेम
मुस्कानें, पहचानें
काम, किताबें, बातें
सब हैं
और एक पीला कोहरा
जिससे इनकी गर्मी
दिल तक नहीं पहुँचती
....
बस
देखते हैं
सादर
....
बस
देखते हैं
सादर
आभार दिबू...
ReplyDeleteशानदार चयन..
सादर...
सुन्दर प्रस्तुति, ।।।।।शीर्षक हेतु फिर मैं .... आभार पटल।
ReplyDeleteशुभ संध्या
बेहतरीन प्रस्तुति दिव्या जी।बहुत ही सुंदर चयन।मेरी रचना को पटल पर स्थान देने हेतु दिल से आभार।
ReplyDeleteअनुपम प्रस्तुति व संकलन - - मुझे जगह देने हेतु आभार - - नमन सह।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति तथा संकलन
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