सादर अभिवादन
निपट गई चतुर्थी
हम सब गुणा-भाग कर रहे हैं
क्या खोया और क्या पाया
कल बाजार मे छलनी एक के
साथ एक फ्री मिल रही थी
जिसने भी इस सुविधा का लाभ उठाया
उसको व्होलिनी का उपयोग करना पड़ा
अब चलिए रचनाओं की ओर...
अब चलिए रचनाओं की ओर...
समय अपना वादा नहीं निभाता,
सूर्य हौले से, धूप की चादर
डूबने से पहले खींच
लेता है, शायद
उसे ओढ़ाना
हो किसी
और
को गर्माहट देने के लिए, ऋतुचक्र
की सुई देर नहीं करती,
समय जो निरंतर गतिमान है
क्या वाकई गति करता है?
या घटनाएं ही ऐसा प्रतीत कराती हैं
दिन और रात
माह और वर्ष
जन्म और मृत्यु
के मध्य समय बहता सा लगता है
आता नहीं, अब कोई इस मोड़ तक,
खुशियाँ नहीं, शहर के किसी छोड़ तक,
पसरी है, विरानियाँ!
भीगी साहिलों के हैं, हालात क्या?
शहरी हवा
कुछ इस तरह चली है
कि इन्सां सारे
सांप हो गए हैं ,
साँपों की भी होती हैं
अलग अलग किस्में
पर इंसान तो सब
एक किस्म के हो गए हैं .
लिख कुछ बोल कुछ दिखा कुछ बता कुछ
छपा कुछ दे कुछ दिला कुछ
पता किसी को कुछ भी नहीं होना है
काले कोयले का धुआँ सफेद राख सफेद
बचा कहीं उसके बाद कहीं कुछ नहीं होना है
...
बस..
कल की कल देखेंगे
सादर
बस..
कल की कल देखेंगे
सादर
बेहतरीन चयन..
ReplyDeleteसादर..
सुन्दर भावनाओं से सजा सांध्य अंक मुग्ध करता है - - मेरी रचना को शामिल करने हेतु हार्दिक आभार।
ReplyDeleteसुन्दर लिंक्स चयन
ReplyDeleteवाह, तीसरी बार लगातार पुनः मेरी ही रचना से चुनी गई पंक्ति "जज्ब जज्बातों के हैं हालात क्या..." के चयन से शीर्षक निर्माण हेतु आभार।
ReplyDeleteआभार पटल------शुभ संध्या