Monday, November 2, 2020

527 ..साँझ के गहराते ही मन मुखरित हो उठते हैं

सादर अभिवादन
वर्ष बीतने की कगार पर है
मिलने-जुलने वाले
उत्सव सामने है
सभी से अनुरोध, एतिहात बरतें
आवेश में न आए...और 
वातावरण को कम से कम प्रदूषित करें

आइए रचनाएँ देखें...



दो  नैनों  की क्या कहिये  -
बस इनमें  छवि तुम्हारी थी ,
मंदिर की  मूर्त  में भी हमने   
बस  सूरत  तेरी निहारी थी ;
मिल  जाते जो  किसी  रोज़ यूँ ही 
थकते ना   अपलक  निहार तुम्हें  !
हो  विकल   यादों  की गलियों में -
 मुड़-मुड़ ढूंढा   हर  बार तुम्हें   !




कहने को कोई बात नहीं है
पर है भण्डार विचारों का
जिन्हें एक घट में किया संचित
कब गगरी छलक जाए
यह भी कहा नहीं जा सकता
पर कभी बेचैन मन इतना हो जाता है



भूल जाते हो तुम कि 
एक अर्से से तुम्हारा साथ 
केवल मैंने दिया है 
जब जब तुम उदास होते 
मैं ही तुम्हारे पास होती 
तुम अपने हर वायदे में असफ़ल रहे 



भुनभुनाती दबी आवाज़ 
जो मध्यम से 
ऊँची होने लगी
रात के साथ 
रिश्ते भी
स्याह से भरने लगीं
कहते हैं ...
ये वक्त निशाचर का है।



साँझ के गहराते ही मुखरित हो
उठते हैं, सभी ज़िन्दगी के
कैनवास, सजल पलों
को समेटता हूँ
मैं अपने
देह
के आसपास, डूबता है सूरज या
उभारता है किसी और रात
का फीकापन, अंधकार
.....
बस
कल फिर
सादर

 

3 comments:


  1. ख़ूबसूरत रचनाओं से सजा सांध्य अंक मंत्रमुग्ध करता है - - मेरी रचना को शामिल करने हेतु आभार - - नमन सह।

    ReplyDelete
  2. सुंदर प्रस्तुति आदरणीय दीदी! अपनी पुरानी रचना को मंच पर पाकर बहुत खुशी हुई! नमन करते हुए आज के सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएं!
    आपको सादर आभार 🙏🙏🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  3. शानदार लिंक |मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार सहित धन्यवाद यशोदा जी

    ReplyDelete