



सादर नमस्कार
उन्तीसवां दिन सितम्बर का
सन 2021 देखने की उत्कट अभिलाषा
आज के पिटारे में....
मेधा और मन ...
जीवन यात्रा कैसी अबूझ
कौन इसे समझा है अब तक
चक्र चले ये चले निरन्तर
मेधा सृष्टि रहेगी जब तक
मतभेद अवसाद साथ रहे
चले सदा भावों का भाला।।
पंख पसार उड़े क्षितिजों तक
एक जागरण ऐसा भी हो
खो जाए जब अंतिम तन्द्रा,
रेशा-रेशा नाचे ऊर्जित
मिटे युगों की भ्रामक निद्रा !
बारम्बार वापसी - -
तृषित बियाबान, क्रमशः हम भूलते गए
दूसरों के निःश्वास, मुस्कुराहटों के
नेपथ्य का दर्द, बचाते रहे ख़ुद
को अंधकार गुफाओं से,
पाँव पसारता रहा
लेकिन हमारे
बहुत अंदर
तक
अनिःशेष रेगिस्तान।
तुम इस तरह आओ के मँगल कलश छलके
मेरे घर में ख़ुशी ही ख़ुशी चहके
ताउम्र रहे साथ तुम्हारे मेरा प्यार
मेरी दुआओं का असर बन के
निष्पक्ष पत्रिकारिता के लिए यह जरुरी है कि सिक्के के दोनों पहलुओं के बारे में ईमानदारी के साथ बिना भेद-भाव के, बिना पक्षपात किए पूरा खुलासा किया जाए ! यदि ऐसा नहीं होता है तो मीडिया के साथ जो ''बिकाऊ विशेषण'' जोड़ दिया गया है उसको और हवा ही मिलेगी !
....
आज बस
पता नहीं कल कौन
सादर
हमारी दीदी पगला गई है
सच कह रही हूँ
सुबह-सुबह मैसेज आया कह रही थी दिवू
कुछ लिंक तलाश कर दियो
हम सोमवार का अंक बनाना भूल गए हैं
हमारी हंसी रुकने का नाम भी नहीं ले रही थी
आज हमारी ट्यूशन की भी छुट्टी है
हम दवा का नाम लिखकर भेज दिए...
आज की रचनाएँ सुबह-सवेरे...
समीर भाई साहब कुछ अजीब सा सोचते है..
भविष्य का इतिहास
आप भी पढ़िए..
चाय नाश्ता आते ही वह चर्चारत हुए। कहने लगे कि ‘आजकल मैं समय लिख रहा हूँ’ समझे? मेरे कानों में महाभारत टीवी सीरियल का
‘मैं समय हूँ’ गूँज उठा पूरे शंखनाद के साथ।
मैंने पूछा कि वो महाभारत वाले समय की
आत्मकथा लिख रहे हैं क्या? मुस्कराते हुए कहने लगे-
मैं जानता था कि तुम नहीं समझोगे। चलो तुमको
इसे सरल शब्दों में समझाता हूँ।
वह सरल शब्दों में बोले कि दरअसल
मैं भविष्य का इतिहास लिख रहा हूँ।
उन जलज लतिकाओं में, खोजता
रहा उसके सीने का मर्मस्थल,
सिर्फ अनुमान से अधिक
कुछ भी न था, कभी
किनारे से सुना
उसका
अट्टहास, और कभी मृत सीप के -
खोल में देखा चाँदनी का
उच्छ्वास,
आसमान जब बाहें फैलता हैं
घना बादल जब आँखे दिखता हैं
देखती हैं ओटो के बीच से
कोई बच्चा देखे जो आँखे मीच के,
कभी अलसाये तो लाल हो,
चाँदनी गालो पे जब गुलाल हो,
नजरों का मिलना और मुस्कुराना ज़ुर्म हो गया
गजब नज़रों में कशिश ईश़्क का इल़्म हो गया
इक अजनवी चेहरा ने किया हृदय ऐसा घायल
कि नजरों के भ्रमजाल में ख़ुद पे ज़ुल्म हो गया ।
चलते- चलते एक गरमागरम खबर
लेखक लेखिका
यूँ ही नहीं लिखा करते
कुछ भी कहीं भी कभी भी
हर कलम अलग है स्याही अलग है
पन्ना अलग है बिखरा हुआ है
कुछ उसूल है
लिखना उसी का लिखाना उसी का
गलफहमी कहें
कहें सब से बड़ी है
भूल है
‘उलूक’
पागल भी लिखे किसे रोकना है
बकवास करने के पीछे
कहीं छुपा है
रसूल है।
बस..
सादर
सादर नमस्कार
कांटा लग गया कल
दर्द तो हुआ..और
दवा भी मिल गई
तत्काल समाप्त हुई पीड़ा..
खैर छोड़िए कांटे को
रचनाओं का पिटारा खोलें..
भारत के वीरो ने ली है, शपथ ...
सीमा पर शत्रु ने फिर से,
बढ़ाई अपनी चाल है,
फन कुचलने को उनकी,
प्रहरीबने हुए ढाल हैं
दुश्मन पड़ा है सकते में,
उल्टी पड़ी उसकी चाल है
हिमालय सिर्फ पर्वत नहीं,
भारत मां की भाल है
चलो बाँध स्वप्नों की गठरी
रात का हम अवसान करें
नन्हें पंख पसार के नभ में
फिर से एक नई उड़ान भरें
बूँद-बूँद को जोड़े बादल
धरा की प्यास बुझाता है
बंजर आस हरी हो जाये
सूखे बिछड़ों में जान भरें
क्षितिज में उभर चले हैं, रंगीन
विप्लवी वर्णमाला, फिर
कोई बढ़ाएगा हाथ,
व्यथित
अहल्या को है युग - युगांतर से
प्रतीक्षा, कोई सुबह तो
ले, पुनः कालजयी
अवतार।
दो पल्ले के किवाड़ में,
एक पल्ले की आड़ में ,
घर की बेटी या नव वधु,
किसी भी आगन्तुक को ,
जो वो पूछता बता देती थीं।
अपना चेहरा व शरीर छिपा लेती थीं।।
डायरी शैली की पुनः वापसी
मेरी उदासी मेरी सासु माँ को
बिलकुल अच्छी नहीं लगती है।
लेकिन आज वे भी मेरी उदासी का कारण
जानकर चिंतित दिखीं।
शायद कल कोई बड़ी चाभी
समय के गुच्छे से निकल सके।
दिल ने जो दिल से ठानी है, वो रार मुबारक
जीते तू ही हर बार ,हमें तो हार मुबारक....
इज़हारे मोहब्बत भी, तक़ाज़ों का सिला है,
वल्लाह ये आशिक़ी की हो, तक़रार मुबारक ....
...
इति शुभम्
सादर
आज के अंक का विलम्बित प्रकाशन
भूल ही गए थे
कोई बात नहीं
आज का अंक
वाकई सांध्य अंक हो गया
वो आदमी जो फूटपाथ पे रात
दिन, धूप छांव, गर्मी सर्दी
अपने हर पल गुज़ार
गया, काश जान
पाते उसके
ख़्वाबों
में ज़िन्दगी का अक्स क्या था,
"सूर्यास्त की छवि उस वजह से ही कुछ ज्यादा मनमोहक चुम्बकीय...,
" मयूर की बातें पूरी होने के पहले ही मानस द्वारा अचानक लिए गए
ब्रेक से कार झटके से रुक गई।
"क्या हुआ?" मयूरी और मयूर एक साथ बोल पड़े।
"थोड़ा पीछे देखो, शायद उन्हें हमारी सहायता की आवश्यकता है।"
तो जवाब सुनने का धैर्य भी रखिए ...
जब सफलता, सम्मान और प्रतिष्ठा
कुछ लोगों के सर पर
पालथी मार कर जम जाते हैं,
तब उन्हें संभालना
सब के बस की बात नहीं रह जाती !
ऐसे में उन्हें हर इंसान गौण नजर आने लगता है।
अपनी अक्ल और ज्ञान के गुमान के सामने
उन्हें दूसरों की हर बात गलत लगने लगती है।
प्रेम आलिंगन मनोरम
लालिमा भी लाज करती
पूर्णता भी हो अधूरी
फिर मिलन आतुर सँवरती
प्रीत की रचती हथेली
गूँज शहनाई हृदय में।।
...
बस
सादर
सादर वन्दे..
आप कैसे हैं आज
मैं भली-चंगी हूँ
मौसम और माहोल गंदा है
इसीलिए पूछ बैठी..
आज की पसंदीदा रचनाएँ...
मैं तुम्हें खोजता रहा बाहर,
पर तुम तो अन्दर ही थी,
कभी तुमने आवाज़ नहीं दी,
कभी मैंने अन्दर नहीं झाँका.
दर्पण भी न पढ़ पाया ..उदयवीर सिंह
मुख के रंग -रंगोली को ।
कर जोड़े मुस्कान अधर
मानस की घात ठिठोली को ।
रेशम के वस्त्रों में लिपटा ,
काँटों का उपहार मिला ,
केतकी वन के पार - - शान्तनु सान्याल
अधूरा रहा जीवन वृत्तांत, तक़ाज़े से
कहीं छोटी थी रात, हर चीज़ को
लौटाना नहीं आसान, संग
हो के भी कुछ निःसंग
पल, निबिड़ रात्रि
विवस्त्र
तेरा चेहरा तेरी आँखे, तेरी धड़कन तेरी साँसे।
सताती है मुझे हरपल, तुम्हारे संग की यादें।।
तेरा चेहरा मेरी आँखें, मेरी धड़कन तेरी साँसे।
जगाती है मुझे हरपल, तुम्हारे संग की रातें।।
भूली सी कोई याद
जाने कब से सोयी है
हर दिल की गहराई में
करती है लाख इशारे जिंदगी
किसी तरह वह याद
दिल की सतह पर आये
फरहत शहज़ाद की ग़ज़लें ...अशोक खाचर
साथ जमाना है लेकिन
तनहा तनहा रहता हूँ
धड़कन धड़कन ज़ख़्मी है
फिर भी हसता रहेता हूँ
‘उलूक’ कुछ करना कराना है तो
गिरोह होना ही पड़ेगा
खुद ना कर सको कुछ
कोई गल नहीं
किसी गिरोहबाज को
करने कराने के लिये
कहना कहाना ही पड़ेगा
हो क्यों नहीं लेता है
कुछ दिन के लिये बेशरम
सोच कर अच्छाई
हमाम में
सबके साथ नहाना है
खुले आम कपड़े खोल के
सामने से तो आना ही पड़ेगा
सादर..