नया जमूरा
जमूरा नहीं जमूरी कहिए
कल आएगी वो
अपनी प्रस्तुति लेकर
प्रतीक्षा करिएगा
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आज की रचनाएँ..
जमूरा नहीं जमूरी कहिए
कल आएगी वो
अपनी प्रस्तुति लेकर
प्रतीक्षा करिएगा
...
आज की रचनाएँ..
दुग्ध धार सी बहती विमल शुभ्र सरिते ,
उज्ज्वल कोमल निर्मल क्षीर नीर सरिते ।
कैसे तू राह बनाती कंटक कंकर पाथर में,
चलती बढती निरबाध निरंतर मस्ती में ।
कशिश!
मचलती सी जुंबिश,
लिए जाती हो, कहीं दूर!
क्षितिज की ओर,
प्रारब्ध या अंत,
एक छद्म,
पलते अन्तराल,
यूँ न काश!
क्यों न उलझूँ
बेवजह भला!
तुम्हारी डाँट से ,
तृप्ति जो मिलती है मुझे।
पता है, क्यों?
माँ दिखती है,
तुममें।
तुम मेरे इस दिल को पागल मत कहना
अपना बच्चा सब को प्यारा होता है
तुम जाओ पर यादों को तो रहने दो
यादों का भी एक सहारा होता है
-श्रीकांत सौरभ
काका उनके साथ ही खेत में उपलाए सूखे घास को
छानकर किनारे फेंक रहे थे।
अचानक से सुखाड़ी बहु ने कादो
उठाकर उनके बनियान पर फेंका और जबर्दस्त ठहाका छूट पड़ा।
इसी बीच सभी कोई जोर-जोर से गाने लगीं,
"खेतवा में धीरे-धीरे हरवा चलइहे हरवहवा,
गिरहत मिलले मुंहजोर,
नये बाडे़ हरवा,
नये रे हरवहवा,
नये बाड़े हरवा के कोर..!"
...
आज बस
कल की कल
सादर
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आज बस
कल की कल
सादर
सुंदर प्रस्तुति। बधाई और आभार !
ReplyDeleteमंच पर स्थान देने हेतु आभारी हूँ आदरणीया।
ReplyDeleteश्रेष्ठ चयन..
ReplyDeleteआभार...
मंच पर स्थान देने हेतु आभार आपका । विलंब सहित...
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