Wednesday, June 17, 2020

388..मर्यादाओं की लक्ष्मणरेखा का यथार्थ

सादर नमस्कार
बुधवार
नया कुछ नहीं
न बढ़ा और
न ही घटा
सिर्फ लापरवाह ही
आगोश में आए
....
आज की पसंदीदा रचनाएँ...

बहुत चाहा
तुम्हारी तृप्ति का
एक बूँद हो सकूँ
किंतु तुम्हारे अहं की 'धा' में
भाप बनी
अपने लिए
तुम्हारे मनोभावों
की सत्यता
जानकर भी
तुम्हारे ही
आस-पास
भटकना
और मिट जाना
नियति है मेरी।


सन्नाटे की चादर ओढ़े
रात अँधेरा गहराता।
यादों के ताने-बाने ले
कुछ धीरे से कह जाता।
आँख मिचौली खेले चन्दा
बादल बीच डोलता है।
अँधियारे आँगन आ बैठा
अंतस मौन बोलता है।


मधुऋतु अगर न मन में उतरी 
फूटी नहीं हृदय की गागर, 
सूना रहा घाट उर सर का 
मन्दिर के द्वारे तक जाकर !


कुंचित काली अलकें महकी 
मधुर पर्शमय अभिनंदन 
चंद्र प्रभा सी तरुणाई पर 
महका तन जैसे चंदन।। 

कजरारी अँखियों के सपने 
निद्रा से जैसे जागे 
दर्पण में श्रृंगार निहारे 
चित्त पिया पर ही लागे 
पिया मिलन की आस हँसी जब 
सोच आगमन आलिंगन।।


आईन तो हम रोज़ बदल सकते हैं 
अख़लाक़ में तरमीम नहीं हो सकती 

हम रोज़ नए मुल्क बना सकते हैं 
तहज़ीब की मगर तक़सीम नहीं हो सकती
....
बस
कल फिर
सादर


6 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति...
    लोग अब कोरोना को भूलने लगे हैं
    अच्छी स्थिति है अब लेखन में
    सादर..

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  2. सुंदर प्रस्तुति, मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया।

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  3. लापरवाही ही सारा खेल बिगाड़ रही है, सुरक्षित रहें ! आभार !

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  4. बहुत बहुत आभारी हूँ दी।
    सादर।

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  5. शानदार प्रस्तुति 👌👌👌👌
    मेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार 🙏🙏🙏

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  6. बढ़िया लेख लिखते रहें

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