Wednesday, February 5, 2020

257..पागल सरदार का हर पागल अपने खोल से बाहर निकल निकल कर आ रहा है

सादर अभिवादन
आज कुछ अव्यवस्थित हैं हम
मौसम रायपुर का
रो रहा है
और शहर वासियों को भी रुला रहा है
ये सब मानवीय अनियमितता की वजह से है
खैर अब भुगत रहे हैं सब तो
हमको भी तो भुगतना ही होगा

चलिए चले आज की 
संक्षिप्त प्रस्तुति का अवलोकन करें..

फिर कहीं मधुमास की पदचाप सुन,
डाल मेंहदी की लजीली हो गई।

दूर तक अमराइयों, वनबीथियों में
लगी संदल हवा चुपके पांव रखने,
रात-दिन फिर कान आहट पर लगाए
लगा महुआ गंध की बोली परखने


निष्ठुर स्मृति का
कर्कश कुकृत्यों की
अश्लील अतीत के
जश्न नहीं मनाना।
एक नया नालंदा बनाना।
अपने अख्तियार की!


कल्पनाऐं भी शायद,
बिखरना छोड़ दें,
मगर फिर क्या होगा,
धुँआ घरों से नहीं,
देह से उठा करेगा,
शोर मुँख से नहीं,
दिलो-दिमाग़ को फाड़कर,
आत्मा की परिधि से निकलेगा,
फिर क्या होगा।


क्या करे
पागल ‘उलूक’

उस के
लिखते ही
हर गली का पागल

उसे
पागल
सिद्ध
करने के लिये

अपने
पागल
सरदार की टोपी
हाथ में
लहराता हुआ
सा
निकल रहा है।

आज अब बस
फिर मिलेंगे
सादर..

3 comments:

  1. शुक्रिया यशोदा जी। आप सभी साथियों का धन्यवाद!

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  2. सुंदर संकलन। आभार।

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