Tuesday, February 4, 2020

256..हर पल जीत लेती हूँ जीने के लिए...

सादर अभिवादन
आज विश्व कैंसर दिवस है

1933 में अंतर्राष्ट्रीय कैंसर नियंत्रण संघ ने स्विट्जरलैंड में जिनेवा में पहली बार विश्व कैंसर दिवस मनाया। यह दिवस कैंसर के बारे में जागरूकता बढ़ाने, लोगों को शिक्षित करने, इस रोग के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए दुनिया भर में सरकारों और व्यक्तियों को समझाने तथा हर साल लाखों लोगों को मरने से बचाने के लिए मनाया जाता है। 2014 में इसे विश्व कैंसर घोषणा के लक्ष्य 5 पर केंद्रित किया गया है जो कैंसर के कलंक को कम और मिथकों को दूर करने से संबंधित है

वर्तमान में, दुनिया भर में हर साल 76 लाख लोग कैंसर से दम तोड़ते हैं जिनमें से 40 लाख लोग समय से पहले (30-69 वर्ष आयु वर्ग) मर जाते हैं। इसलिए समय की मांग है कि इस बीमारी के बारे में जागरूकता बढ़ाने के साथ कैंसर से निपटने की व्यावहारिक रणनीति विकसित करना है। वर्ष 2025 तक, कैंसर के कारण समय से पहले होने वाली मौतों के बढ़कर प्रति वर्ष 60 लाख होने का अनुमान है। यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2025 तक कैंसर के कारण समय से पहले होने वाली मौतों में 25 प्रतिशत कमी के लक्ष्य को हासिल किया जाए तो हर साल 15 लाख जीवन बचाए जा सकते हैं।


“गौरवशाली यादें” ....विभा रानी श्रीवास्तव 'दंतमुक्ता'

मरने के बारे में सोचती ही नहीं... यानी सोचने के लिए समय नहीं निकाल पाती कि कभी मरना भी है... हर पल जीत लेती हूँ जीने के लिए... सहित्योपचार नहीं मरेगा, हमलोगों द्वारा स्थापित साहित्य और समाज के प्रति जागरूकता और पागलपन नहीं मरेगा... मर ही नहीं सकता न... बूँद हूँ! दरिया के संग मिलकर सागर का दशा-दिशा बदलने की चाहत रखती हूँ..!




अभी वह अपने बचपन में अठखेलियां करती है। बेखबर है दुनिया के रंग -ढंग से। खुश है। खेल रही है अपने मेमने के साथ। प्यारे मेमने को वह सोमू कहती है। दे रही है उसे अपना सम्पूर्ण स्नेह और प्रेम। वह करती है सोमू पर अथाह विश्वास। उसकी हर कलाबाजी पर लड़की भरती है किलकारी और प्रसन्न रहती है। दोनों एक दूसरे की खुशी का रखते हैं पूरा ध्यान। 

खेलती हुई लड़कियां... प्रतिभा कटियार

मुस्कुराती हैं वो
करती हैं अगली गेंद का इंतजार
खेलती हुई लड़कियां फुटबाल को जब मारती हैं पैर से
तो मारती हैं जिन्दगी में आई मुश्किलों को भी
थोड़ा संभल के भी और पूरे जोर से भी
जिन्दगी में घिर आई नफरतों को वो एक ही बार में
कर देना चाहती हैं 'गोल' सिर्फ प्यार बचाना चाहती हैं धरती पर



असाध्य वीणा .... अज्ञेय

ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
वृंदगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक् :
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे!

सुनो गर्जना ..पंकज प्रियम

मंचों के आसन से
धृतराष्ट्री शासन से
कालाबाज़ारी राशन से
उठती गर्जना हर ओर सुनो।
अंधा दिखाए राह यहाँ
कुर्सी की बस चाह यहाँ
दिन दहाड़े खुद लूटकर डाकू
सिपाही को कहता चोर सुनो।
...
आज बस
घर का खाइए...
साफ सुथरा खाइए
भूख से कम खाइए
जीभ की बातें अनसुना करिए
कभी कैंसर नहीं होगा

......
सादर







3 comments:

  1. घर का खाइए...
    साफ सुथरा खाइए
    भूख से कम खाइए
    जीभ की बातें अनसुना करिए
    कभी कैंसर नहीं होगा
    -- एकदम खरी बात .....

    बहुत अच्छी संध्या मुखरित मौन प्रस्तुति

    ReplyDelete
  2. सबकुछ तो मिलावटी है, शुद्ध क्या है , जिसे हम खाएँ..
    शुद्ध हवा तक तो नहीं है..
    मैंने यहाँ ऐसे भी लोगों को देखा की जो खानपान बिल्कुल सादगी भरा रहा है।
    फिर भी हमारा धर्म है कि परहेज करें..
    जानकारियों से भरा अंक।

    ReplyDelete
  3. कैंसर दिवस पर विशेष जानकारी देती सार्थक भूमिका। सुंदर प्रस्तुति। समसामयिक सरस रचनाओं का ख़ूबसूरत चयन। सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    ReplyDelete