Monday, February 3, 2020

255...दोस्ती की मिसाल..

सादर नमस्कार
एक अनुकरणीय कथा 
श्रीमति चंचलिका शर्मा की वाल से
बिना टीप दिये उनका निकलना ......
उन चारों को होटल में बैठा देख, मैं हड़बड़ा गया था।
लगभग 25 सालों बाद वे उसके सामने थे। शायद अब 
वो बहुत बड़े और संपन्न हो चुके थे।
मुझे अपने मित्रों का आर्डर लेकर परोसते समय 
बड़ा अटपटा लग रहा था।
उनमे से दो मोबाईल फोन पर व्यस्त थे. और दो लैपटाप पर।
मैं पढ़ाई पूरी नही कर पाया था।शायद इसीलिए उन्होने 
मुझे पहचानने का प्रयास भी नही किया होगा।
वे भोजन कर बिल अदा करके चले गये ।
अब मुझे लगा कि वो चारों शायद पहचानना ही नही चाहते थे या 
मेरी हालत देखकर,जानबूझ कर पहचानने की कोशिश ही नही की।
खैर....एक लंबी सांस के साथ मै फिर अपनी टेबल साफ करने लगा.
टिश्युपेपर उठाकर कचरे मे डालने ही वाला था, पर एक पेपर कुछ अलग सा था, शायद उन्होने कुछ जोड़ा-घटाया था ।।
अचानक मेरी नजर उस, लिखे हुये शब्दों पर पड़ी,
लिखा था - प्रिय मित्र तू हमें खाना खिला रहा था पर, आज, बचपन की तरह साथ बैठा नही। तुझे टीप देने की हिम्मत हममें नही थी, 
हमने तेरे इस होटल के पास ही उद्योग पुरी मे एक नयी फैक्ट्री 
के लिये जगह खरीदी है,अब इधर आनजाना तो रहेगा ही. तो सुन, आज तेरा इस होटल का आखरी दिन। हमारी फैक्ट्री की कैंटीन भी कोई तो चलायेगा ही ना? तुझसे अच्छा पार्टनर और कहां मिलेगा??? स्कूल के दिनों हम पांचो आपस मे एक दूसरे का टिफिन खा जाते थे.... 
अब से तेरा बनवाया ही खाएंगे

अब चलिए चलते हैं रचनाओं की ओर..

प्रेम बस अक्षर नहीं, जिसे लिख डालें,
शब्दों का मेल नहीं, जिसे हर्फो से पिस डालें,
उष्मा है ये मन की, जो पत्थर पिघला दे,
ठंढ़क है ये, जलते मन को जो सहला दे,
कोशिशें अनथक अनवरत जारी हैं मेरी,
वो ठंढ़क, वही उष्मा जीवन में नित भरने की!


" कर्मचंद !  कैसे सहा तुमने घराती और बराती  दोनों का इतना सारा खर्च। यह समाज भी कैसा विचित्र है .. दिल बड़ा तो लड़की के पिता का होता है , पर ढोल लड़के वालों का बजता है..। "


जमाना सो रहा था पर जाग रहे थे हम,
खुद की परछाई से अब भाग रहे थे हम,
अँधेरे का डर दिखाके तुम जीत जाओगे,
एक जमाने में कभी आग रहे थे हम।


भूख का चल रहा वह भीषण दौर भयावह था,
चीख़ती आवाज़ें अंतरमन की अकेलेपन के नुकीले दाँत, 
वसंत में फूटती मटमैली-सी मन की अभिलाषा, 
 मैं जीवन का सारा सब्र चबा चुकी थी। 

आज की एक रचना
ऊपर की कहानी निगल गई
मिलते हैं फिर
सादर

6 comments:

  1. व्वाहहहह
    सादर..

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  2. ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय..
    सही कहा भाई जी, ईश्वर के इस वरदान की अनुभूति बनावटी शब्दों से नहीं होती, इस अमृत घट से दो बूंद स्नेह उसी को मिल पाता है, जो निश्छल हो..।
    अन्यथा आज आध्यात्मिक एवं साहित्यिक जगत के लोगों में तो कम से कम कटुता नहीं होती।
    इस प्रतिष्ठित पटल पर श्रेष्ठ रचनाओं के मध्य मेरे लघुकथा को स्थान देने के लिए आपका आभार यशोदा दी, सभी रचनाकारों को सादर नमन।


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  3. आज की बेहतरीन प्रस्तुति का हिस्सा बनकर सुखद अनुभूति हुई है। समस्त रचनाकारों को साधुवाद ।

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  4. लाजवाब कहानी से लाजवाब शुरुआत।

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  5. वाह!बेहतरीन प्रस्तुति ।

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  6. लाजवाब कथा जो दोस्ती की महिमा में चार चाँद लगाती मन को भावुक कर गयी। बाकी सब रचनाएँ भी बहुत सार्थक हैं। सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनायें । आपको भी हार्दिक बधाई इस प्यारे से अंक के लिए आदरणीय दीदी 🙏🙏🙏

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