सादर नमस्कार
आज बुध की शाम
हिन्दी माह की दसवीं तारीख
कल तुलसी-विवाह होगा
फिर.....
बैण्ड-बाजा और बारात
ले जाएँगे ले जाएँगे..
पर..किसे..
जब बेटी होगी तब न
हिन्दी माह की दसवीं तारीख
कल तुलसी-विवाह होगा
फिर.....
बैण्ड-बाजा और बारात
ले जाएँगे ले जाएँगे..
पर..किसे..
जब बेटी होगी तब न
गूढ़ प्रश्न..ढूंढते रहिए जवाब
और लिंक की ओर चलिए...
खकिया-कलुआ भाई-भाई
बाप रे!
सहनशीलता चरम सीमा पर है,
सभी सह रहे हैं, एक दूजे को।
सहिष्णुता में ही बदलता है रंग,
देख खरबूजा, खरबूजे को।
खाकी के कालेपन में ,
कल्लू भी खकिया गया है।
सहनशीलता के चक्कर मे
कानून भी सठिया गया है।
और लिंक की ओर चलिए...
खकिया-कलुआ भाई-भाई
बाप रे!
सहनशीलता चरम सीमा पर है,
सभी सह रहे हैं, एक दूजे को।
सहिष्णुता में ही बदलता है रंग,
देख खरबूजा, खरबूजे को।
खाकी के कालेपन में ,
कल्लू भी खकिया गया है।
सहनशीलता के चक्कर मे
कानून भी सठिया गया है।
जब शून्यता में डूब जाए शहरी कोलाहल,
और निशि पुष्प तलाशें अपना वजूद,
उड़ान सेतुओं की ख़ामोशी जब
कोहरे में हो जाएँ कहीं गुम,
मन विनिमय का खेल,
चलो पुनः खेलें
कतरा - कतरा ये रात पिघल जाने लगी,
इक उम्मीद थी आपके आने की, जाने लगी।
काटी हैं सब रातें जगरतों में हमने,
थक से गये हैं अब, नींद आने लगी।
बरसा है ये बादल यूँ मेहरबान हो के,
रोया है वो दिल खोल के, फ़िक्र खाने लगी।
जिंदगी में हमारी अगर दुशवारियाँ नहीं होती
हमारे हौसलों पर लोगों को हैरानियाँ नहीं होती
चाहता तो वह मुझे दिल में भी रख सकता था
मुनासिब हरेक को चार दीवारियाँ नहीं होती
दूर हैं वो, पल भर को, जरा सा आज!
तो, खुल रहे हैं सारे राज!
वर्ना न था, मुझको ये भी पता,
कि, जिन्दा है, मुझमें भी एक एहसास!
जिन्होंने मुझे खुशियाँ दी , उनसे कहीं अधिक मैं उनका आभारी हूँ , जिनसे मिली वेदना ने मेरा पथप्रदर्शन किया और जब मैं पुनः ब्लॉग पर सक्रिय हुआ, तो "जीवन की पाठशाला" में मिली " छोटी- छोटी खुशियों " को लेखनी के माध्यम से शब्द देने का प्रयत्न कर रहा हूँ। अवसाद से मुक्त आनंद की खोज में मेरे ये कदम बढ़ चले हैं..
आज के लिए इतना ही
कल शायद फिर मिलेंगे
सादर
कल शायद फिर मिलेंगे
सादर
व्वाहहहह..
ReplyDeleteलाजवाब..
सादर..
शुभ संध्या
ReplyDeleteसराहनीय प्रस्तुतीकरण
इस अंक में मेरे लेख को शामिल करने के लिये आभार यशोदा दी..
ReplyDeleteयह अंधकार से प्रकाश की ओर मेरी यात्रा है। देवोत्थान एकादशी जिसे हरि प्रबोधिनी एकादशी विकास जाता है और उसके पश्चात गुरुपर्व सन्निकट है, अतः मैं भी अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूं इस लेख के माध्यम से अपनी अनुभूतियों को व्यक्त कुछ इस तरह से किया हूं। प्रणाम।
एक बात और कहने की इच्छा है।
Delete" ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये |
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए || "
प्राइमरी कक्षा से हम इसे पढ़ते आ रहे हैं,परंतु
अमल नहीं कर पाते हैं,सम्भवतः गुरुदेव इसी लिये मौन रहने पर बल देते हैं। जाप भी करों तो श्वास-प्रश्वास के माध्यम से, अब समझ पा रहा हूँ , इसका रहस्य, यह कुतर्क से हमें परे रखता है और हमारी चिंतनशक्ति को सार्थक दिशा प्रदान करता है, मैं पिछले कुछ ही दिनों से इसका अभ्यास कर रहा हूँ, ताकि वाणि पर संयम प्राप्त कर सकूँ और इसके प्रभाव की अनुभूति भी कुछ-कुछ कर पा रहा हूँ।
अतः सभी से आग्रह यह है कि आपस में किसी भी प्रकार के कटुतापूर्ण प्रकरण का पटाक्षेप कर लिया। छोटे का सम्मान "क्षमा मांगने" में है और बड़े का "क्षमा करने" में..
जब सबकुछ नश्वर है, तो हमारा अहंकार शाश्वत क्यों, आपस में यह वैमनस्यता क्यों ?
-व्याकुल पथिक
सुंदर। आभार और बधाई!!!
ReplyDeleteसांध्य मुखरित मौन प्रस्तुति में मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!
ReplyDeleteसुन्दर संगम
ReplyDeleteबहुत सुंदर। विशेषतः 'रात्रिशेष के पथिक' बहुत अच्छी लगी। अन्य रचनाएँ भी अच्छी हैं।
ReplyDeleteyashoda ji
ReplyDeleteअच्छे लिंक्स जोड़े हैं आपने यशोदा जी। इन्द्रधनुषयी रंगों की तरह हर रंग का अपना असर है।
इस अंक में मेरे लेख को शामिल करने के लिये आभार यशोदा दी..
जिंदगी में हमारी अगर दुशवारियाँ नहीं होती
हमारे हौसलों पर लोगों को हैरानियाँ नहीं होती
बहुत खूसूरत रचना
इस अंक में मेरे लेख को शामिल करने के लिये आभार यशोदा दी.युहीं उत्साह बढ़ाते रहें और साथ बनाएं रखें