Tuesday, January 19, 2021

605 ...दिख ही जाती है, वक्त की गहरी बुनावट! चेहरों की, दहलीज पर

सादर नमस्कार
कल जनवरी की बीसवीं तारीख
शपथग्रहण है अमेरिका में
काफी कुछ हंगामा करना सीख गया है
भारत से अमेरिका...
इसबार की चुनावी चकल्लस देख कर
ऐसा ही कुछ लग रहा है

देखिए आज का पिटारा...

कुछ उपेक्षित मलिन प्रदेश, हमेशा की
तरह रहते हैं ओझल, दीवार उठा
दिए जाते हैं रातों रात, नाले
के दोनों किनारे, लेकिन
सत्य को छुपाना
इतना भी
सहज


मन के ‘परदे’ पर 
यादों की फिल्म चलती है 
‘वह’ उसी तरह रहता है अलिप्त 
जैसे आँख के पर्दे पर 
चित्र बने अग्नि का तो जलती नहीं 


फिरे ढूँढते स्वर्ग जगत में
सारी दुनिया घूम गए।
स्वर्ग बसा माँ की गोदी में
उसको ही सब भूल गए।
सदा लुटाती माँ बच्चों पे
आशीषों की धूप छनी।


ज़िंदगी का दूसरा नाम 'जिंदादिली' है। 
जो कि बा-मुश्किल लोगों को मिली है।
बिन बारिश भी जो खुद को 
सूखने ना दे, 
पतन होने न दे 
उसी का नाम हरियाली है ।


जब मनुष्य सीखना बन्द कर देता है
तभी वह बूढ़ा होने लगता है
बुढ़ापा मनुष्य के चेहरे पर उतनी झुरियाँ नहीं  
जितनी उसके मन पर डाल देता है


उम्र, दे ही जाती हैं आहट!
दिख ही जाती है, वक्त की गहरी बुनावट!
चेहरों की, दहलीज पर, 
उभर आती हैं.....
आड़ी-टेढ़ी, वक्र रेखाओं सी ये झुर्रियाँ,
सहेजे, अनन्त स्मृतियाँ!

चलते-चलते 
गरमा-गरम
अभी अभी
देख कर उड़ा है ‘उलूक’
कुछ मुँह छुपा कर अपना

जो हुआ है
सब को पता है
जीत किसकी हुई
चोर चोर मौसेरे
घूँम रहे हैँ खुले आम

एक शरीफ अपना मुँह
चुल्लू मेँ
डुबाना चाहता है ।
....
आज बस
सादर

 

6 comments:

  1. बहुत अच्छी सांध्य दैनिक मुखरित मौन प्रस्तुति में मेरी ब्लॉग पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!

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  2. व्वाहहह..
    काफी से अधिक सीख गए हैं आप...
    आभार...
    सादर..

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।

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  4. मंत्रमुग्ध करता हुआ मुखरित मौन यथावत अपना अलग छाप छोड़ता है,मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार आदरणीय दिग्विजय जी।

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  5. मेरी रचना के अंश को शीर्षक का रूप देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। ।।।।।
    सुन्दर प्रस्तुति, बेहतरीन लिंक्स का अनूठा संकलन।।।।। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ ।।।

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