Thursday, December 24, 2020

579 ...घुल रहा है हवा में ज़हर ही ज़हर

सादर वन्दे
क्रिसमस की पूर्व संध्या में आपका स्वागत
कल सान्ता जी आएँगे
बच्चे लालायित हैं
गिफ्ट मिलेगा

.....
टलिए टलें (बच्चों की भाषा)
आज की रचनाएँ देखें


समय के अंगविक्षेप में दंभ रहता है भरा, 
निःशब्द मंचित हो कर छोड़ जाता है 
सब कुछ जहां के तहां,मुड़ कर 
वो देखता भी नहीं कि कौन हो तुम, 
दिग्विजयी सम्राट या कोई रमता जोगी,




मै तो तेरे रूह का हिस्सा हूं
जिसे तू भी मिटा नहीं सकता
अपने नाम से मेरा नाम
हटा नहीं सकता





घुल रहा है हवा में ज़हर ही ज़हर
कुछ जतन कीजिए कोंपलों के लिए 

साथ "वर्षा" निभाती रहेगी सदा 
आस्था शेष है बादलों के लिए





रोज़ सूरज 
घूमता है सिर झुकाए
बंद मुट्ठी में 
उजाले को दबाए




महज़ ...
सीने की आग ही
एक ढर्राए पिरामिड को 
भस्म कर
फिर से खड़ा कर सकती है
एक सपनों का महल ।।


8 comments:

  1. शानदार अंक..
    आभार..
    सादर..

    ReplyDelete
  2. खूबसूरत प्रस्तुति

    ReplyDelete
  3. बेहतरीन अंक...
    सादर..

    ReplyDelete
  4. बहुत रोचक एवं पठनीय लिंक्स उपलब्ध कराने के लिए आभार एवं साधुवाद !!!

    ReplyDelete
  5. दिव्या अग्रवाल जी,
    मेरे लिए यह अत्यंत प्रसन्नता का विषय है कि आपने मेरे नवगीत को 'सांध्य दैनिक मुखरित मौन में' में शामिल किया है।
    हार्दिक धन्यवाद आपको!!!
    आभारी हूं।

    ReplyDelete
  6. घुल रहा है हवा में ज़हर ही ज़हर
    क्या कहूं... भावविभोर हूं, हृदय से अत्यंत आभारी भी, आपने मेरी ग़ज़ल को आज के अंक में शामिल तो किया ही है साथ ही शीर्ष पंक्ति में भी रखा है।
    पुनः हार्दिक आभार प्रिय दिव्या अग्रवाल जी 🙏❤️🙏
    सस्नेह,
    डॉ वर्षा सिंह

    ReplyDelete
  7. हमेशा की तरह ख़ुश्बुओं से लबरेज़ है मुखरित मौन - - सुन्दर संकलन व प्रस्तुति, मेरी रचना को शामिल करने हेतु आभार, नमन सह।

    ReplyDelete