Thursday, December 10, 2020

565 ...ज़िंदगी के जाल एक खाली इच्छाओं से बुनी.. तलाश में कुछ खुशियों की

नमस्कार
आज समय था
कल शायद न रहे
चलिए चलें देख रहे हैं आज

चुप चुप है सब आज दिशाएँ
अवमानना के भाव मुखरित।
भग्न सभी निष्ठा है छिछली
प्रश्न सारे रहे अनुत्तरित।
पस्त हुआ संयम हरबारी
मौन लगा फिर देख खटकने।।
- कुसुम बहन

पिटारे की रस्सी ढीली करते हैं ....


जनता की आवाज़ 
समय समय पर 
होती रहनी चाहिए ऊंची 
इससे पता चलता रहता है कि 
लोकतंत्र नहीं हो रहा है 
बहरा।





आँखों पर चश्मा हाथ में लाठी
कमर झुकी है आधी आधी
हूँ हैरान सोच नहीं पाती
इतना परिवर्तन हुआ कब  कैसे |





स अलिंद से उतरती, 
दूधिया रौशनी में, 
कितनी ही परछाइयों ने दम तोड़ दिया, 
समारोह के अंत में, 
ख़ाली कुर्सियों की मौन पंक्तियों में, 
जीवन पाता है, 
कुछ ख़ुश्बुओं के उतरन,





इस आत्महत्या के युग में
कैसे प्रेम किया जाता है
कैसे भावनाओं को
जिया जाता है
कैसे अंकुरित हो पाते हैं बीज


डिग चला, विश्वास थोड़ा,
अपनाया जिसे, क्यूँ, उसी ने छोड़ा!
उजाड़ कर, इक बसेरा,
ढूंढ़ते, सवेरा,
इक राह में खो गए, बिन कुछ कहे,
खल गई, बात कुछ!






स्मृतियाँ तड़पती आँखों, 
व फूलती साँसों की 
छप-सी जाती हैं
मासूम हृदय पर।
यातना के धीपाये हुए 
सलाखों के
गहरे उदास निशां में
ठहर जाती है लय
मन के स्फुरण की।
....
इति शुभम्
सादर

6 comments:

  1. बेहतरीन अंक..
    आभार..
    सादर..

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  2. शुभ संध्या ..
    प्रस्तुति का हिस्सा बन सका, आभारी हूँ।

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  3. मंत्रमुग्ध करता मुखरित मौन, साँझ को अर्थपूर्ण कर जाता है, संकलन व प्रस्तुति दोनों आकर्षक, सभी रचनाएँ असाधारण हैं,मुझे जगह देने हेतु हृदय तल से आभार - - नमन सह।

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  4. सुप्रभात
    मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार सहित धन्यवाद सर |
    उम्दा संकलन इस अंक की रचनाओं का |

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