सादर अभिवादन
आज पता नहीं क्यूं लिंक चुन ली गई मेरे द्वारा
शायद ईश्वर को पता हो
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विसंगति
कैसी अघोर
कविता कोमल तुम्हारी
किन्तु हृदय
कठोर !
कविता दीदी
आदमी काम से नहीं चिन्ता से जल्दी मरता है
गधा दूसरों की चिन्ता से अपनी जान गंवाता है
धन-सम्पदा चिन्ता और भय अपने साथ लाती है
धीरे-धीरे कई चीजें पकती तो कई सड़ जाती है
चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’
जान चाहेगा नहीं जान सा माना चाहे
चाहिए चाहने देना जो दीवाना चाहे
दिल का दरवाज़ा हमेशा मैं खुला रखता हूँ
कोई आ जाए अगर वाक़ई आना चाहे
चलते-चलते एक समीक्षा
"कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता/
कहीं ज़मीं नहीं मिलती..कहीं आसमां नहीं मिलता"
अवसाद . सन्नाटा .. अधजगी रातें
कान में बजती अनगिनत बेगैरत आवाज़ें
और टूटता तिलिस्म
कविता हमेशा कविता नहीं होती है
वह suicide note लिखने का अभ्यास भी हो सकती है
या ऱोज जीते - जी मरने का हलफ़नामा भी
..
बस
सादर
बस
सादर
अरे वाह ! बहुत ही सुन्दर सूत्रों से सुसज्जित आज का अंक ! मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए आपका ह्रदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाओं से परिपूर्ण अंक ।
ReplyDeleteबहुत अच्छी सांध्य दैनिक मुखरित मौन प्रस्तुति में मेरी ब्लॉग पोस्ट सम्मिलित करने हेतु आभार!
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteसच कहूँ तो हमें काम नहीं, बल्कि अपनी और दूसरों की बेवजह चिंताएँ खा जाती हैं। गधे वाला उदाहरण पढ़ते ही हंसी भी आई और सोचने पर भी मजबूर किया, हम भी तो अक्सर वही गलती करते हैं।
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