बाँध रक्खा है किसी सोच ने घर से हम को
वर्ना अपना दर-ओ-दीवार से रिश्ता क्या है
रेत की ईंट की पत्थर की हो या मिट्टी की
किसी दीवार के साए का भरोसा क्या है
घेर कर मुझ को भी लटका दिया मस्लूब के साथ
मैं ने लोगों से ये पूछा था कि क़िस्सा क्या है
संग-रेज़ो के सिवा कुछ तिरे दामन में नहीं
क्या समझ कर तू लपकता है उठाता क्या है
अपनी दानिस्त में समझे कोई दुनिया 'शाहिद'
वर्ना हाथों में लकीरों के अलावा क्या है
-शाहिद कबीर
क्या बात है आपकी कविता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम जिन चीज़ों को पकड़ कर बैठे हैं, वो कितनी अस्थायी और नकली हो सकती हैं। इस तरह का लेखन इंसान को अपनी सीमाओं, भ्रमों और उम्मीदों पर दोबारा सोचने को प्रेरित करता है।
ReplyDelete