Monday, October 18, 2021

794 ..गिरा हुआ आदमी ....गजेन्द्र भट्ट


सेठ गणपत दयाल के घर के दरवाजे के पास दीनू जाटव जैसे ही पहुँचा, उसने मकान के भीतर से आ रही रोने की आवाज़ सुनी। ठिठक कर वह वहीं रुक गया। कुछ रुपयों की मदद की उम्मीद लेकर वह यहाँ आया था। उसकी जानकारी में था कि सेठ जी आज घर पर अकेले हैं, क्योंकि सेठानी जी अपने बेटी को लेने उसके ससुराल गई हुई थीं। वह लौटने लगा यह सोच कर कि शायद सेठानी जी बेटी-नातिन को ले कर वापस आ गई होंगी, बाद में आना ही ठीक रहेगा। पाँच-सात कदम ही चला होगा कि दबी-दबी सी एक चीख उसे सुनाई दी। सड़क के दूसरी तरफ बैठा एक कुत्ता भी उसी समय रोने लगा था। किसी अनहोनी की आशंका से वह घबरा गया और वापस गणपत दयाल के घर की तरफ लौटा।

'किसकी चीख हो सकती है यह? सेठ जी की नातिन अगर आई हुई है तो भी वह चीखी क्यों होगी? क्या करूँ मैं?', पशोपेश में पड़ा दीनू दरवाजे के पास आकर रुक गया। तभी भीतर से फिर एक चीख के साथ किसी के रोने की आवाज़ आई। अब वह रुक नहीं सका। उसने निश्चय किया कि पता तो करना ही चाहिए, आखिर माज़रा क्या है! हल्का सा प्रहार करते ही दरवाजा खुल गया। दरवाजा भीतर से बन्द किया हुआ नहीं था। भीतर आया तो बायीं ओर के कमरे से आ रही किसी के रोने की आवाज़ और उसे चुप कराने के लिए धीमे स्वर में किसी के द्वारा धमकाये जाने की आवाज़ भी उसने सुनी। उसे लगा कि यह आवाज़ सेठ जी की ही हो सकती है।


स्तम्भित था दीनू! समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे वह! 'सेठ जी अपनी रोती-चीखती नातिन को तो यूँ धमका नहीं सकते।' -सहमा-सहमा वह कमरे के पास आया। भीतर से आ रही आवाज़ अब साफ सुनाई दे रही थी।

"रोना-चीखना बन्द कर! तू खुद ही आई है यहाँ। शोर मचाएगी तो तेरी ही बदनामी होगी। चुपचाप पड़ी रह।" -गणपत दयाल कह रहे थे।

"अंकल, मैंने बताया न आपको। मम्मी-पापा ने हाट में जाते समय कहा था कि घर पर अकेली मत रहना, गणपत चाचा के वहाँ चली जाना, इसलिए आई थी मैं। मुझे छोड़ दो, जाने दो प्लीज़!" -डरी-डरी यह आवाज़ किसी लड़की की थी।

अब सब्र नहीं कर सका दीनू! उसने जोर-से दरवाजे को धक्का दिया। दीनू की आशा के विपरीत दरवाजा तुरंत खुल गया। यह दरवाजा भी भीतर से बंद नहीं था।

 "कौन है बे?'-लड़की पर झुके गणपत दयाल हड़बड़ा कर खड़े हो गये।

"मैं दीनू! यह क्या कर रहे हो सेठ जी?"

"अरे, तू भीतर कैसे आ गया? बाहर का दरवाजा तो बंद था। कैसे खोला तूने?"- गणपत दयाल ने घबराहट पर काबू पाने की कोशिश की।

"दरवाजा भीतर से बन्द नहीं था। मैंने खटखटाने के लिए हाथ मारा तो खुल गया।" -दीनू ने जवाब दिया। कहते-कहते उसकी नज़र सामने पलंग पर पड़ी। एक लड़की आधे-अधूरे कपड़ों में पलंग पर लेटी मुँह पर हाथ धरे सिसक रही थी। उसका फ्रॉक पलंग पर ही एक तरफ पड़ा था। लड़की दीनू को देख कर पलंग पर उठ बैठी, कातर स्वर में उसके मुख से निकला - "दीनू काका..."

दीनू चौंका, वह गणपत दयाल के रिश्तेदार की चौदह वर्षीय बेटी आशा थी, जिनका घर सेठ जी के घर से तीन मकान की दूरी पर ही था।

"छिः सेठ जी, आपकी रिश्तेदार है यह! आपकी नातिन की उमर की बच्ची है! कुछ तो शरम करते!" -दीनू ने गणपत दयाल की ओर घृणा भरी नज़रों से देखा।

गणपत दयाल ने नहीं सोचा था कि एक छोटी जात का आदमी इतनी हिम्मत कर लेगा। उन्हें आश्चर्य व अफ़सोस भी हो रहा था कि वह बाहरी दरवाजा भीतर से बन्द करना भूल कैसे गए थे।

गाँव में उनका बहुत रुतबा था। कई लोग उनके कर्ज से दबे हुए थे। उन्हें भरोसा था कि दीनू तो एक मामूली गरीब चमार है, डपटने और लालच देने पर चुपचाप सिर झुका कर लौट जाएगा, सो गरज कर बोले- "तेरी इतनी हिम्मत! जा, भाग जा यहाँ से।... और खबरदार, किसी से कुछ बोला तो।" -उन्होंने जेब से सौ रुपये का एक नोट निकाल कर उसकी तरफ फेंका।

"सेठ जी, गरीब हूँ, पर इतना बेगैरत नहीं कि एक कागज़ के टुकड़े पर ईमान बेच दूँ। आप इस बच्ची को जाने दो यहाँ से।"

"अबे स्साले, चमार होकर जबान लड़ाता है।" -दीनू के मुँह पर थप्पड़ जड़ते हुए गणपत दयाल दहाड़े।

 दीनू सेठ जी की बहुत इज़्ज़त करता था और अपनी औक़ात से भी अनजान नहीं था। कई बार वह उनसे छिट-पुट मदद लिया करता था और बदले में कोई सेवा वह बताते, तो कर देता था।... लेकिन आज वह इस बड़े आदमी का असली रूप देख कर अपना आपा खो बैठा, बिफर कर बोला- "चमार हूँ, गरीब हूँ, मगर आपके जितना गिरा हुआ आदमी नहीं हूँ।"

इसके पहले कि गणपत दयाल कुछ सोच-समझ पाते, दीनू ने झपट कर उनकी कमर कस कर पकड़ ली और उन्हें पीछे धकेलते हुए आशा से कहा- "जाओ बिटिया, निकल जाओ यहाँ से।"

आशा ने पलंग से अपना फ्रॉक उठाया और कमरे से निकल भागी।

किंकर्तव्यविमूढ़ गणपत दयाल अब कुछ सावधान हुए। दीनू की पकड़ से उन्होंने स्वयं को मुक्त किया और उसे नीचे गिरा कर हाथ और दोनों पैरों से बेतहाशा मारने लगे। दीनू दोनों हाथों से खुद को बचाने की असफल कोशिश करता फर्श पर पड़ा पिटता रहा। आशा को बचाने का उसका उद्देश्य पूरा हो गया था। उसने सेठ जी पर हाथ नहीं उठाया, क्योंकि उसके भीतर उठे तूफ़ान में अब इतनी तेजी नहीं रही थी कि गाँव में स्थापित सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन कर सके।


दीनू पिटते-पिटते व गणपत दयाल पीटते-पीटते निढ़ाल हो गये थे और दोनों ही अब कुछ कहने-करने की स्थिति में नहीं रहे थे। गणपत दयाल अब भी अपने मन को यही समझा रहे थे कि गाँव वाले सब-कुछ जानने के बाद भी कुछ नहीं बोलेंगे और बात को आई-गई कर देंगे।... और दीनू? जमीन पर पड़े, कराह रहे दीनू को पिटने से भी अधिक पीड़ा इस बात की हो रही थी कि पैसे की मदद नहीं मिल पाने के कारण सुबह से भूखे उसके बच्चों को अब शाम का खाना भी नसीब नहीं होगा।

-गजेन्द्र भट्ट 

1 comment:

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