Sunday, October 3, 2021

779 ...कितनी गांठें, बंध गई, इस मन के अन्दर

सादर अभिवादन
श्राद्ध पर्व अब रवानगी की ओर है
अब कौवों के दिन भी लदने वाले हैं
फिर घूरे-मुक्कड़ो में मन रमाना होगा
बच्चों से पत्थर खाना होगा
रचनाओं की ओर चलें


तुम्हारी लिखी जिन चिट्ठियों को मैं
अब तक हृदय से लगा कर संजोती आई थी
उनकी राख और चुन चुन कर तुम्हारे दिए
सभी स्मृति चिन्ह और उपहारों के फूल
एक पोटली में बाँध विसर्जित कर आई हूँ




कितनी गांठें, बंध गई, इस मन के अन्दर,
प्यासा रह गया, कितना समुन्दर,
बहता जल, नदी का, ज्यूं कहीं हो ठहरा,
लगाए, खुद पे पहरा,
हर शै, यहां कितना अधूरा!




मीलों लम्बी
घिरी उदासी
देह ज़रा-सी।

कुर्सी, मेजें,
घर, दीवारें
सब कुछ तो मृतप्राय लगें





वर्ष भर तो याद न किया
कागा अब क्यों याद आया
पहले जब भी मुडेर पर बैठते
बच्चे तक तुम्हें उड़ा देते थे
पर अब बहुत आदर सत्कार से
बुलाकर सत्कार  किया जाता तुम्हारा




तुमसे मिले हुए
कई दिन हो गए हैं
पर लगता है जैसे
कल ही की बात है
होंठों पे स्वाद है
साँसों में ख़ुशबू है
हाथों को अहसास है

सादर 

2 comments:

  1. अरे वाह ! बहुत सुन्दर रचनाओं के सूत्रों से सुसज्जित आज का अंक ! मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !

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