सादर अभिवादन
आज डॉ. बशीर बद्र की दो ग़ज़लें
मुस्कुराती हुई धनक है वही
उस बदन में चमक दमक है वही
फूल कुम्हला गये उजालों के
साँवली शाम में नमक है वही
अब भी चेहरा चराग़ लगता है
बुझ गया है मगर चमक है वही
कोई शीशा ज़रूर टूटा है
गुनगुनाती हुई खनक है वही
प्यार किस का मिला है मिट्टी में
इस चमेली तले महक है वही
.....
कोई हाथ नहीं ख़ाली है
बाबा ये नगरी कैसी है
कोई किसी का दर्द न जाने
सबको अपनी अपनी पड़ी है
उसका भी कुछ हक़ है आख़िर
उसने मुझसे नफ़रत की है
जैसे सदियाँ बीत चुकी हों
फिर भी आधी रात अभी है
कैसे कटेगी तन्हा तन्हा
इतनी सारी उम्र पड़ी है
हम दोनों की खूब निभेगी
मैं भी दुखी हूँ वो भी दुखी है
अब ग़म से क्या नाता तोड़ें
ज़ालिम बचपन का साथी है
आज बस इतना ही
सादर


व्वाहहहहह
ReplyDeleteसुंदर,लाजवाब नज्में ।
ReplyDeleteबहुत बढियां रचना
ReplyDeleteआपने दर्द और खूबसूरती को जिस तरह साथ-साथ रखा है, वह सच में कमाल है। कई जगह ऐसा लगा जैसे रोशनी और अँधेरे की लड़ाई एक ही चेहरे पर चल रही हो। दूसरी कविता तो और भी चुभ गई। शहर की भीड़, रिश्तों की उलझनें और अकेलेपन की लंबी उम्र, सब कुछ इतना अपनेपन से लिखा है कि पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई दोस्त दिल खोलकर अपनी रातें बाँट रहा हो।
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