Thursday, August 6, 2020

438..मेरा पुरुष बहुरूपिया ..फणीश्वर नाथ रेणु

हमारी ही लापरवाही से 
कम्प्यूटर के की बोर्ड पर 
चाय की प्याली लुढ़क गई...
असमर्थ हैं हम...और क्षमा के
अधिकारी भी नहीं है..
लोग कहेंगें कि की बोर्ड भी 
कप रखने की जगह है क्या
....


दुनिया दूषती है

हँसती है
उँगलियाँ उठा कहती है ...
कहकहे कसती है -
राम रे राम!
क्या पहरावा है
क्या चाल-ढाल
सबड़-झबड़
आल-जाल-बाल
हाल में लिया है भेख?
जटा या केश?
जनाना-ना-मर्दाना
या जन .......
अ... खा... हा... हा.. ही.. ही...
मर्द रे मर्द
दूषती है दुनिया
मानो दुनिया मेरी बीवी
हो-पहरावे-ओढ़ावे
चाल-ढाल
उसकी रुचि, पसंद के अनुसार
या रुचि का
सजाया-सँवारा पुतुल मात्र,
मैं
मेरा पुरुष
बहुरूपिया।
- फणीश्वर नाथ रेणु

3 comments:

  1. बढ़िया...
    स्कूल में पढ़े थे..।
    सादर..

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  2. चाय माँग रहा होगा दी नहीं होगी कीबोर्ड ने कप ही लुड़का दिया होगा। कोई नहीं होता है। :) धो लेते। सुन्दर कविता।

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