Monday, December 23, 2019

214....अंधेरे के मुसाफ़िर लीक पर वे चले

सांध्यकालीन दैनिक अंक
में आपसभी का स्नेहिल अभिवादन।
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सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
हिंदी नई कविता के सबसे प्रखर किरदारों में से एक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के साथ एक ऐसा संयोग जुड़ा है जैसा कदाचित हिंदी के किसी साहित्यकार के साथ नहीं है. वह पैदा भी हिंदी पखवाड़े में हुए (सितंबर 15, 1927) और निधन भी हिंदी पखवाड़े में हुआ. (सितंबर 24, 1983).
उनके विचार सुस्पष्ट थे. वह जितना सृजन के महत्व से परिचित थे उतना ही उसकी सीमा से. मूल्यों और ध्येय की इस निर्द्वंदता ने उनके लेखन में जो अभूतपूर्व स्पष्टता और ईमानदारी पैदा की वह सर्वत्र उनकी कविताओं में दिखायी देती है.

फसल
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हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड़ भी लूँ कलम तो
फिर भी फसल काटने
मिलेगी नहीं हम को ।

हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे
क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे
हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को ।

कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।

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लीक पर वे चले
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लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं।

साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।

शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़,
हिलती क्षितिज की झालरें;
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं।

लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।
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अंधेरे के मुसाफ़िर
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यह सिमटती साँझ,
यह वीरान जंगल का सिरा,
यह बिखरती रात, यह चारों तरफ सहमी धरा;
उस पहाड़ी पर पहुँचकर रोशनी पथरा गयी,
आख़िरी आवाज़ पंखों की किसी के आ गयी,
रुक गयी अब तो अचानक लहर की अँगड़ाइयाँ,
ताल के खामोश जल पर सो गई परछाइयाँ।
दूर पेड़ों की कतारें एक ही में मिल गयीं,
एक धब्बा रह गया, जैसे ज़मीनें हिल गयीं,
आसमाँ तक टूटकर जैसे धरा पर गिर गया,
बस धुँए के बादलों से सामने पथ घिर गया,
यह अँधेरे की पिटारी, रास्ता यह साँप-सा,
खोलनेवाला अनाड़ी मन रहा है काँप-सा।
लड़खड़ाने लग गया मैं, डगमगाने लग गया,
देहरी का दीप तेरा याद आने लग गया;
थाम ले कोई किरन की बाँह मुझको थाम ले,
नाम ले कोई कहीं से रोशनी का नाम ले,
कोई कह दे, "दूर देखो टिमटिमाया दीप एक,
ओ अँधेरे के मुसाफिर उसके आगे घुटने टेक!"

लड़ाई अभी ज़ारी है

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जारी है-जारी है
अभी लड़ाई जारी है।

यह जो छापा तिलक लगाए और जनेऊंधारी है
यह जो जात पांत पूजक है यह जो भ्रष्टाचारी है
यह जो भूपति कहलाता है जिसकी साहूकारी है
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।

यह जो तिलक मांगता है, लडके की धौंस जमाता है
कम दहेज पाकर लड़की का जीवन नरक बनाता है
पैसे के बल पर यह जो अनमोल ब्याह रचाता है
यह जो अन्यायी है सब कुछ ताकत से हथियाता है
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।

यह जो काला धन फैला है, यह जो चोरबाजारी हैं
सत्ता पाँव चूमती जिसके यह जो सरमाएदारी है
यह जो यम-सा नेता है, मतदाता की लाचारी है
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।

जारी है-जारी है
अभी लड़ाई जारी है।

★★★★★★

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आपकी प्रतिक्रियायें
उत्साहित करती है।

#श्वेता सिन्हा



5 comments:

  1. सुंदर रचनाओं का संकलन।

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  2. बेहतरीन..
    इससे बेहतर वर्षांत अंक हो ही नही सकता
    अब 31 दिसंबर 2019 तक ऐसा ही चलाएँगे
    सादर

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  3. पुनः साधुवाद मुझ जैसे ना के बराबर पढ़ने वाले इंसान को ऐसी महान रचनाकरों की रचनाओं से रूबरू कराने के लिए
    " कह दे, "दूर देखो टिमटिमाया दीप एक,
    ओ अँधेरे के मुसाफिर उसके आगे घुटने टेक!" "
    एक तरफ ये पंक्तियाँ मन को टिमटिमाती है तो दूसरी तरफ ये पंक्तियाँ मन को कुरेद जाती है ..
    " यह जो यम-सा नेता है, मतदाता की लाचारी है " ...
    अद्भुत ...

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