Friday, December 20, 2019

211..खो गये हम अजंता की गुफाओं में

सादर अभिवादन
आज रंग बदल दिया हमनें
गिरगिट के माफ़िक
कितना भी बदल लें
रहेंगे तो गिरगिट ही
11 दिन और
फिर लीप इयर में कदम रखेंगे
रख लेंगे..हमें क्या...

खो गये हम 
अजंता की गुफाओं में 
थिरकने लगे 
खजुराहो के मंदिर में 
लिखते रहे उंगलियों से 
शिलालेख 
बनाते रहे इतिहास--


बिंदी माथे पर सजा ,कर सोलह श्रृंगार ।
पिया तुम्हारी राह ये ,अखियां रही निहार ।।
अखियां रही निहार,तनिक भी चैन न मिलता।
कैसे कटती रात ,विरह में तन ये जलता।।
बढ़ती मन की पीर ,छेड़ती है जब ननदी ।
तुम जीवन आधार ,तुम्हीं से मेरी बिंदी।।


खूब फरमाया आपने
कुल्हड़ में चाय पीने का
मजा ही कुछ और है।
गौर तलब हो कि क्यूँ
कुल्हड़ में चाय पीने का
मजा ही कुछ और है ?


तीक्ष्ण बुद्धि के साथ लिये है,
तंज़ का एक सुनहरा हथियार,
राम-रहीम-सा लिये है मुखौटा,
रावण-तैमूर का चिरकाल से,
बन बैठा  है मुँहबोला बेटा,
जिसकी स्थितियाँ,मनोवृत्तियाँ,
आत्मा हुई हैं  विकृत |


कहता है जोकर सारा ज़माना
आधी हक़ीकत आधा फ़साना
चश्मा उठाओ, फिर देखो यारो
दुनिया नयी है  , चेहरा पुराना..

आज बस
कल फिर मिलेंगे
सादर



4 comments:

  1. सच कहा यशोदा दी आपने, इंसान और गिरगिट में कोई फर्क नहीं है जो बनता है तो संवेदनाओं का पुजारी, बोलता-लिखता भी वैसे ही है , परंतु वास्तव में वह वैसा होता नहीं है , वह तो रंग बदल देता है बिल्कुल गिरगिट की तरह , अपने सुविधानुसार अपने स्वार्थवश...
    निश्छलता, कोमलता और निर्मलता न ढूंढा जाए.. ?
    इसके लिए हमें आँखें खुली रखी होगी...

    खैर मुझे क्या ? हाँ, मेरी रचना को इस सम्मानित मंच पर स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत-बहुत आभारी हूँ।

    सभी रचनाकारों को प्रणाम ,शुभ संध्या और ठंड के मौसम में शुभ रात्रि भी।

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  2. यह बिंदी स्त्रियोंं का श्रृंगार है अथवा उनकी पीड़ा, मैं ठीक से समझ नहीं पाता ?
    बस भावनाओं से भरी ऐसी रचनाओं को पढ़कर कुछ अनुमान लगाने का प्रयास करता हूँँ।

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  3. बेहतरीन ,
    रचना को स्थान देने के लिए आभार

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