सादर नमस्कार
पहले तो उसने
खूब रुलाया मुझे
बाद में कहा
अब मुस्कुराओ
मैं खुलकर हंसा
क्यों कि सवाल
हँसी का नहीं
उसकी खुशी का था !
अब रचनाएँ...
और सुनो न ऐ मेरी उदासी !
जबसे मैंने बदली है अपनी ऐनक
दूसरों की पीड़ा और उदासी ने भी
मेरे दिल को घेरा है और मैंने
उस ऊपरवाले को याद किया
अपनी छटपटाहट को भूल गयी
उदासी को बेघर करने की अहद उठाई
कहीं आम्र पल्लव में कोयल है कूकी !
कोई पार्टी नहीं हम किसी पार्टी के नहीं
अब तक जिसने सब ख्याल रखा हमारा
बिजली पानी और सड़क घर तक लाया
साफ़ सुथरे अस्पताल तो दवाइयाँ मुफ्त
हर मांग पूरी करने वाले को ही वोट देंगे
यह भय का दौर है
आदमी डर रहा है आदमी से
गले मिलना तो दूर की बात है
डर लगता है अब तो हाथ मिलाने से
घर जाना तो छूट ही गया था
पहले भी अ..तिथि बन
अब तो बाहर मिलने से भी कतराता है
मर्दो पर हर बात को सहते हुए ज़िंदगी की लड़ाई को
जीतने का प्रेशर होता है!
प्लीज़ यूं ख़ुद को किसी भी प्रेशर में मत डालिए।
मर्द से पहले इंसान बनिए। ऐसा इंसान
जो दुःख में किसी से लिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रो ले...
जो दर्द से कराह उठे...जो खुल कर हंसे...
जो ज़िंदगी को जिएं...
किस से कहें अपनी व्यथा,
खड़े हैं सामने कुछ
प्रणम्य चेहरे और
कुछ पुरातन पत्थर के स्तम्भ,
सिंहासन पर हैं
पसरे हुए बिसात और पासा,
...
बस
दिग्विजय
बस
दिग्विजय
बहुत सुन्दर..
ReplyDeleteआभार...
सादर..
उम्दा संकलन। मेरी रचना को सांध्य दैनिक मुखरित मौन में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, दिग्विजय भाई।
ReplyDeleteबेहतरीन रचनाओं का संयोजन, आभार !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत संकलन
ReplyDeleteBahut he khubsurat sankalan hai aur meri rachna ko yahan shamil karne ke liye ehad shukriya !
ReplyDeleteAbhar!