Friday, October 30, 2020

524 ..सावन निकल गया कुछ नया नहीं हुआ

सादर अभिवादन
महीने का आखरी दिन 
शरद पूर्णिमा
सोलह कलाओं के साथ
आइए रचनाओँ की ओर चलें..

क्रांति घटे हर घर आँगन में
भय के बादल  छँटे गगन से,
नीरव विमल व्योम का दर्शन
शरद पूर्णिमा हर जीवन में !


उसको चाहूँ,गले लगाना
गले लगाकर,चैना पाना
उसपे लुटता ,मेरा प्यार 
का सखी साजन?नही सखि हार।


फुदकती गिलहरी
टिटहरी का आवाज
बगुलों का झुण्ड
फेरी वालों की पुकार
और बहुत कुछ...
कहते हैं सौदे में हमेशा 
बाजार कमाता है


कुछ उजली सी रात, कुछ धुंधले से
स्पर्श, जंगली फूलों के गुच्छे,
कुछ अज्ञेय शब्दों की
सीढ़ियां, ले जाएँ
मुझे किसी
विषपायी
मुख
की ओर, अधजली सी मोमबत्तियां


शहरी हवा 
कुछ इस तरह चली है 
कि इन्सां सारे 
सांप हो गए हैं ,
साँपों की भी होती हैं 
अलग अलग किस्में 
पर इंसान तो सब 
एक किस्म के हो गए हैं .


आज-कल उलूक की पुरानी कतरने
काफी उड़ रही है इधर-उधर


इस सारे हरे
के बीच में
जब ढूँढने
की कोशिश
की सावन
के बाद

बस जो
नहीं बचा था
वो ‘उलूक’
का हरा था
हरा नजर
आया ही नहीं
हरे के
बीच में
हरा ही
खो गया ।
...
बस
कल की कल
सादर

6 comments:

  1. शरद पूर्णिमा पर शुभकामनाएं ! सुंदर रचनाओं से सजी हलचल, आभार !

    ReplyDelete
  2. सभी रचनाएं बहुत सुन्दर, मुझे शामिल करने हेतु हार्दिक आभार - - नमन सह।

    ReplyDelete
  3. सांध्य दैनिक मुखरित मौन में सम्मिलित करने के लिए आभार, शुभकामनाएं

    ReplyDelete
  4. बेहद सुंदर रचना प्रस्तुति

    ReplyDelete