Tuesday, March 17, 2020

297..सारी दुनिया सदमें में एक साथ आ गयी है

एक महीने से ज़ियादा हो गए
कोरोना को
यत्र-तत्र-सर्वत्र
पसरे हुए
एकाकार हो रहे हैं घर
45 दिनों का राशन
जमाकर निश्चिंत
सब भरोसा दे-दिला रहे हैं
एक दूसरे को कि हम
सुरक्षित हैं और रहेंगे
कह रहे हैं कि
कोरोना अब तेरे लिए
क्यूँ रोना...
चलिए रचनाओं की ओर..

मनुष्यों के स्वार्थी
तीरों से विदीर्ण हुई
कराहती 
प्रकृति के अभिशाप से
जर्जर हुये कंगूरों पर
रेंगती लताओं से
चिपटकर चुपचाप 
परजीवी चूसते हैं
बूँद-बूँद
जीवनी शिराओं का रस
कृश तन,भयभीत मन को
शक्तिशाली होने का भ्रम दिखा 


देश प्रेम के भाषण या
वतन की रक्षा का वचन
याद नहीं आते,
और उस मिट्टी को नहीं चूमता
जिसमें बारूद और लहू की मिलावट से अजीब गंध है।
मुझे याद आती है वो
बैचेन और बेसुध सी शक़्ल
जो मुझे जंग में भेजना नहीं चाहती


सबके मन को भाती कुर्सी
क्या क्या खेल दिखाती कुर्सी

अपने बनते झट बेगाने
जहां बीच में आती कुर्सी

किस्सा कुर्सी का दशकों से
जब तब रोज सुनाती कुर्सी


दिल का टूटना
पत्थरदिल दुनिया में
दिल के बचे रहने की मुनादी भी हो सकती है
और दर्द का होना हो सकता है
जीवन में बची हुई आस्था का होना


सारी दुनिया सदमें में एक साथ आ गयी है, ऐसा अजूबा इतिहास में कहीं दर्ज नहीं है। विश्व युद्ध भी हुए लेकिन सारी दुनिया एकसाथ चिंतित नहीं हुई। आज हर घर के दरवाजे बन्द होने लगे हैं, सब एक-दूसरे का हाथ थामे बैठे हैं, पता नहीं कब हाथ पकड़ने का साथ भी छूट जाए! जो घर सारा दिन वीरान पड़े रहते थे, वृद्धजनों की पदचाप ही जहाँ सुनायी पड़ती थी अब गुलजार हो रहे हैं। न जाने कितने लोग एक-दूसरे से पीछा छुड़ाने के लिये घर से बाहर निकल जाते थे। अब वे सब एक छत के नीचे हैं।
.....
अब बस
कल फिर
सादर


3 comments: