Thursday, November 28, 2019

189....कुछ समझ आया कुछ नहीं आया

सादर अभिवादन
आखिरकार बन ही गई
स र का र
बनती भी क्यों नही
एक-एक स्पेस छूटा हुआ जो है
चलते हैं अब रचनाओं का ओर...


फिर दोहराया जाए ......

पहले पूरे घर में
ढेर सारे कैलेंडर टँगे होते थे ।
भगवान जी के बड़े बड़े कैलेंडर,
हीरो हीरोइन के,
प्राकृतिक दृश्य वाले, ...
साइड टेबल पर छोटा सा कैलेंडर
रईसी रहन सहन की तरह
गिने चुने घरों में ही होते थे
फ्रिज और रेडियोग्राम की तरह !
तब कैलेंडर मांग भी लिए जाते थे,
नहीं मिलते तो ...चुरा भी लिए जाते थे


सीख .....

लचकती डार नहीं
जो लपलपाने लगूँ
दीप की लौ नहीं
जो तेरे झोंके से
थरथराने लगूँ
लहरें उमंग में होती है
बावला व्याकुल होता है


वो गुलाबी स्वेटर ....

याद आती है 
बातें तुम्हारी
तुम बुनती रहीं
रिश्तों  के महीन धागे,
और मैं  बुद्धू
अब तक उन रिश्तों  में
तुम्हें ढूँढ़ता  रहा।



नदी में जल नहीं है .....

गीत-लोरी
कहकहे
दालान के गुम हो गये,
ये वनैले
फूल-तितली,
भ्रमर कैसे खो गये,
यन्त्रवत
होना किसी
संवेदना का हल नहीं है ।


शब्द युग्म ' का प्रयास ...

चलते चलते
चाहों के अंतहीन सफर
मे  दूर बहुत दूर चले आये
खुद ही नही खबर
क्या चाहते हैं
राह से राह बदलते
चाहों के भंवर जाल में
उलझते गिरते पड़ते
कहाँ चले जा रहे है ।


एक और महाभारत ....

गर्दिश ए दौर किसका था
कुछ समझ आया कुछ नहीं आया,
वक्त थमा था उसी जगह
हम ही गुज़रते रहे दरमियान,
गजब खेल था समझ से बाहर
कौन किस को बना रहा था,
कौन किसको बिगाड़ रहा था,
चारा तो बेचारा आम जन था,


यादें जाती नहीं ....

पूरी रात जागता रहा
सपने सजाता,
तुम आती थीं, जाती थीं
फिर आतीं फिर जातीं ,
परन्तु
यादें करवट लिए सो रही थीं
...
अब बस..
फिर मिलते हैं कल
सादर





3 comments:

  1. सस्नेहाशीष व असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार छोटी बहना...
    उम्दा लिंक्स चयन की सुंदर प्रस्तुतीकरण

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