Monday, November 18, 2019

179..वाकया है, घर का है, आज का है, और अभी का है .

सादर अभिवादन
काम के चलते
तबियत में सुधार
हो रहा है..
पर गति शून्य है
शून्य वह विषय है
जिस पर स्वामी जी ने
अमेरिका में घण्टों व्य़ाख्यान
दिया था कभी...
...
चलिए रचनाओँ की ओर..


प्रतिभा दाँया, बाँया देखकर नहीं आती

बचपन से ही मैं बाँये हाथ से लिखता था. लिखने से पहले ही खाना खाना सीख गया था, और खाता भी बांये हाथ से ही था. ऐसा भी नहीं था कि मुझे खाना और लिखना सिखाया ही बाँये हाथ से गया हो लेकिन बस जाने क्यूँ, मैं यह दोनों काम ही बांये हाथ से करता.
पहले पहल सब हँसते. फिर डाँट पड़ने का सिलसिला शुरु हुआ.
अम्मा हुड़कती कि लबड़हत्थे से कौन अपनी लड़की ब्याहेगा? (उत्तर प्रदेश में बाँये हाथ से काम करने वालों को लबड़हत्था कहते हैं)


बादल के पर्दे ...

हम जमीन वाले , आसमान है तेरा 
चमकता  है अब हमारा सितारा कहाँ 

तुम बादल के पर्दे को हटाकर देखो 
कहाँ गिरे बर्फ , बढ़ा है पारा कहाँ 


ग़ज़ल -कुछ हट के ...

इक रोज़ मेरे घर में ख़ुशियों ने दी थी आहट
आमद हुई थी उनकी, पलकें बिछा दीं झटपट

बच्चे हमारे देखो क्या-क्या नहीं हैं करते
जिस मोड़ पर खड़े हों लगते वहीं पे जमघट


मौन ही करता रहा मौन से संवाद.

प्रिय तुम्हारी याद में ,रहा विकल ये मन ।
न कोई उम्मीद थी ,ना आस की किरण ।
मिली हमको जिन्दगी, दुख जहां आबाद ।
मौन ही करता रहा , मौन से संवाद।।


मैं भूल जाना चाहती हूँ ....

भुलक्कड़ रही सदा से
बचपन से ही
कभी याद न रख सकी
सहेज न सकी
कोई कड़ुवाहट
सखियों से झगड़ा
सगे या चचेरे-ममेरे
भाई बहनों से तीखी तकरार
हाथ-पाँव पर लगे
चोट पर लगा दिया करती थी


उलूक टाईम्स से 

फिर
खोलना
क्या है

 ‘उलूक’

‘पाश’
के
सपनो
का
मर जाने
को
मर जाना
कहने से
भी

सपने

जरा भी
नहीं
देखने वालों
का
होना क्या है ?
....
आज बस इतना ही
कल फिर मिलेंगे
सादर



2 comments:

  1. खरी प्रस्तुति..
    उम्दा रचनाएँ..
    सादर...

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