सादर अभिवादन।
है बरसात का सुहाना मौसम
फैलते हैं डेंगू, मलेरिया ज्वर,
ऋतु परिवर्तन नियति-चक्र है
मौसम के समझो नख़रे-तेवर।
आइये अब आपको आज की पसंदीदा रचनाओं से रूबरू कराएँ-
प्यार इक तरफा नहीं होता
कहीं न कहीं किसी ने
बरगलाया है तुझे मेरे खिलाफ
पर दूसरों की दखलंदाजी
मुझे पसंद नहीं आती
मेरे पास बैठ कर
उलझन सुलझाई होती
जयचन्दों के पुरखों की
यह
भारत अब जागीर नहीं,
सरहद पर ब्रह्मोस खड़ा है
लकड़ी की शमशीर नहीं,
आतंकी साम्रज्य मिटेंगे
अभिनन्दन के वारों से ।
उम्मीदों
के
पंख
लगाकर
आशा
की
डोली
में
बैठकर
उड़ने
को
बेकरार
रहता
दिल
ही
तो
मानता
नहीं
जख़्म
सहकर
भी
हँसता
झील
की
गहराई
में
उभरा
अक्स
देख
किसी
का
चुपके-चुपके
रो
देता
घडी दो घडी तो हर कोई हर किसी का कर लेता है
तू सारी उम्र किसी का इंतजार कर तो जानू
निगाहों के इशारे तो अदब वालों की शिनाख़्त नही
तू महफिल में ज़ुबान से इकरार कर तो जानू
जब ऊपर की पीढ़ी विदा होने लगी तो कुछ ही घरों पर छतें रह गयी बाकि ढह गयी और कुछ सालों बाद वो खंडहर बन बिकने लगे। जो संस्कार गाँवों से लाये थे वे चुकने लगे थे। शिक्षा की चमक दमक ने संस्कारों पर कुठाराघात किया और उनकी आने वाली पीढ़ी डैड और ममी वाली रह गयी। सारे रिश्ते अंकल और आंटी में सिमट गए। मामा , मामी , बुआ , चाचा चाची दादी बाबा सब ख़त्म हो गए। नयी पीढ़ी के हाथ क्या आया?
आपसे प्रतिक्रियाओं की उम्मीद के साथ अब विदा लेता हूँ।
मिलेंगे फिर अगली प्रस्तुति में।
रवीन्द्र सिंह यादव
शुभ संध्या भाई रवीन्द्र जी
ReplyDeleteबेमिसाल रचनाए पढ़वाई...
आभार..
सादर...
शुभ सांध्य आदरणीय रवीन्द्र जी
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर संकलन
सादर
बेहद सुन्दर विविधरंगी सूत्रोंं संकलन रविन्द्र जी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अंक।
ReplyDeleteबेहतरीन अंक
ReplyDeleteबहुत सुंदर संकलन मेरी रचना को सांध्य दैनिक मुखरित मौन मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय
ReplyDeleteसराहनीय संकलन
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