Saturday, February 20, 2021

637...दो घरों की चिराग होती हैं बेटियाँ

सांध्य दैनिक के
शनिवारीय अंक में आप सभी का
स्नेहिल अभिवादन।

कुछ भी लिखने कहने का मोल नहीं हैं,
अर्थहीन शब्द मात्र,भावों के बोल नहीं हैं।
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आइये आज की रचनाएँ पढ़ते हैं-

अंधेरा बो रहा है


खंजर जिगर पर पीछे से लगाकर,
जख्म अंदर और बाहर सी रहा है।

रुखसार पर है  हंसी का ही पहरा,
आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।


दो घरों की चिराग होती हैं बेटियाँ

“क्या कहूँ ऐ गुरुजी मैं अपनी व्यथा, 
मुझको औलाद का गम सताता रहा
हर तरह से हुई ना उम्मीदी मुझे, 
अब जमाना जवानी का जाता रहा
जो जवानी भी ढल-ढल के जाने लगी, 

अब अवस्था बुढ़ापे की आने लगी

अधरोंं के मृगजल



अनसुलझे समीकरण में कहीं,
जीवन लिखे जाता है,
मुक्त छंदों की
कविता,
सभी
विसंगतियों को एक बिंदु पर
मिलाने का प्रयास, हर
सुबह एक निःशर्त

चले जा रहे हैं


कुछ ख्वाबों की परछाइयाँ 
आँखों के सागर में
मुसलसल डोलती हैं 
कैसे कह दें कि
ख्वाब हम नहीं देखते हैं !
दिल के बागानों में पलती 
खुशबुएँ दिखती तो नहीं 
हाँ पर साथ चलती हैं

और चलते-चलते पढ़िए

मन का व्याकरण

काश ! कि ..
गढ़ पाते जो 
कभी हम
व्याकरण
मन का कोई
और पाते
कभी जो
सुधार हम
वर्तनी भी
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आज बस इतना ही
आज्ञा दीजिए अगली प्रस्तुति तक। 








7 comments:

  1. बेहतरीन..
    रुखसार पर है हंसी का ही पहरा,
    आस्तीन में पोसे वो साँप ढो रहा है।
    सादर..

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  2. बहुत अच्छी सांध्य दैनिक मुखरित मौन प्रस्तुति में शीर्षक को लेकर मेरी पोस्ट शामिल करने हेतु आभार!

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  3. शुक्र है कि /
    होता नहीं/
    कोई व्याकरण
    और ना ही /
    जैसी सरल,
    होती है /
    कोई वर्तनी ,/
    भाषा में /
    नयनों वाली/
    दो प्रेमियों की //
    जैसीसादा और भावपूर्ण पंक्तियों के साथ सुंदर प्रस्तुति प्रिय श्वेता। सभी रचनाकारों को बधाई और शुभकामनाएं।

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  4. सभी रचनाएँ अपने आप में अद्वितीय हैं मुग्ध करता हुआ मुखरित मौन, मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार - - नमन सह।

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  5. सुंदर प्रस्तुति। सभी रचनाकारों को बधाई।

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  6. उम्दा...
    अच्छी व अनपढ़ी रचनाओं से रूबरू करवाया आपने
    सादर

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  7. उम्दा व अच्छी रचनाएं...खूब बधाई।

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