Saturday, July 18, 2020

419 ..नहीं बचा है ज्यादा फर्क, हत्या और आत्महत्या में

सादर नमस्कार
पिछले दो दिन हम नहीं थे
आज का अखबार पढ़कर मन
व्यथित हुआ..
सरकार तो सही काम कर रही है
पर , बेसब्रे लोग,
मरने पर उतारू है
और मीडिया दोषी ठहरा रही है
सरकार को..
दोनों तरफ से मुश्किल...
चलिए वही होगा जो ईश्वर चाहेगा

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कुछ दिनों बाद मैं भी कट जाऊँगा,
और उस दरवाजे का मोहारा बनूंगा,
जहाँ उसे लगाने वालें हैं,
जीते जी तो ना सही मरने पर हम साथ आने वाले हैं।


चलो,अब उठो,
कोई ना-नुकर मत करो,
मरना तो तुम्हें पड़ेगा ही.
मैं कृतज्ञ था उनके प्रति,
तैयार था मरने के लिए,
आसान हो जाता है मरना,
जब मारनेवाले इतने उदार हों.


रात सावन की
कोयल भी बोली
पपीहा भी बोला
मैं ने नहीं सुनी
तुम्हारी कोयल की पुकार
तुम ने पहचानी क्या


नहीं बचा है ज्यादा फर्क
हत्या और आत्महत्या में 
हत्या से पहले आत्म को चिपका देने
से क्या बदल जाता है 

जीना कौन नहीं चाहता भला
लेकिन इस दुनिया को जीने लायक
बनाने के लिए
हमने खुद किया क्या है आखिर?


ज़िन्दगी की सड़क
साथ के पहियों पर
नज़र दौड़ाती हूँ तो
प्यार का स्टेयरिंग 
पेण्डुलम की मानिंद
डोलता दिखाई देता है


सिमट रहे, ये दलीचे उम्र के,
ख्वाब कोई, अब, आए ना मुड़ के!

मन के फलक, धुंधलाए हैं, हल्के-हल्के,
दूर तलक, साए ना कल के,
सांध्य प्रहर, कहाँ किरणों का गुजर,
बिखरे हैं, टूट कर ख्वाब कई,
रख लूँ चुन के!
...
इति शुभम्
कल फिर
सादर

4 comments:

  1. आदरणीय कमल उपाध्याय और ओंकार जी की रचना, बेहतरीन है और झकझोर देने वाली भी। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
    मंच से जुड़े सभी गुणीजनों को शुभ संध्या।

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  2. नहीं बचा है ज्यादा फर्क
    हत्या और आत्महत्या में
    हत्या से पहले आत्म को चिपका देने
    से क्या बदल जाता है
    आदरणीया प्रतिभा जी की उक्त रचना में निहित संदेश सोचने को विवश करती है।
    सुंदर लेखन हेतु साधुवाद।

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  3. बढ़िया संकलन. मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.

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  4. उत्कृष्ट रचना प्रस्तुति

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