Tuesday, July 7, 2020

408 ...सहज हों कैसे, विकर्षण के ये क्षण

सादर नमस्ते
आज फिर मैं ही हूँ
मैं तो मैं ही रहूँगी न
कोई भी
नहीं चाहिए
प्रश्न अभी
घिरी हुई हूँ
अभी मैं बहुत से 
प्रश्नों से घिरी
नहीं न जीना 
....
चलिए आज की रचनाओं पर नज़र..

भीड़ का गुमनाम चेहरा,
एक मौन भीड़,
भेड़-बकरी के झुंड की तरह
किसी चरवाहे के इशारे पर
सर झुकाये पगडंडियों की
धूल उड़ाना और बिना प्रतिकार किये
बेबस,निरीह मानकर
स्वयं अपने कंठ में बँधी
 रस्सी का सिरा किसी
असाधारण के हाथ थमा देना।

सुख दुख की आंख मिचौली तो सारा जीवन ही चलती है;
तुम हो जाते हो लिप्त स्वयं तब वह भी खाता लिखती है;
जो गोद बैठकर कुदरत की, शिशु बनकर उसे चूम लेता;
सच मानों तुम उसके खाते को फ़ाड़ स्वयं वह देती है ।


बढ़ गया है वैसे भी आजकल चीनी का बहुत दाम,
चीनी के बदले तेरी मीठी बोली से ही चलेगा काम।
तब पत्नी ने कहा-"ए.जी. (अबे गधे) आप बड़े 'वो' हैं,
देखते नहीं घर में अभी मौजूद "हम दो, हमारे दो" हैं।


वृक्ष की जड़ें
मिट्टी में जगह
बनाती जाती हैं ।
वृक्ष की शाखाएं
बाहें पसारे
झूला झूलती हैं,
पल्लवित होती हैं ।


औरत ने सुन रखा था यह सब,
महसूस नहीं किया था कभी,
क्योंकि घर के किचन के बाहर 
उस औरत का कोई घर नहीं था.


सहज हों कैसे, विकर्षण के ये क्षण!
ये दिल, मानता नहीं,
कि, हो चले हैं, वो अजनबी,
वही है, दूरियाँ,
बस, प्रभावी से हैं फासले!
...
चलती हूँ
दिव्या

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