Thursday, September 19, 2019

119...सांझ अकेली साथ नही हो तुम .....

स्नेहाभिवादन !
'सांध्य दैनिक मुखरित मौन" में  आप सभी रचनाकारों और पाठकों का हार्दिक अभिनन्दन !

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।

पेड़ खडे फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधुली, साथ नहीं हो तुम,

बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम।

 'शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ 

'सांझ अकेली' कवितांश के साथ आज के चयनित सूत्रों का अवलोकन करते  हैं ।

उठो कि रात गई दिन निकलने वाला है
वो देखो रात के दामन तले उजाला है

हमारे साथ रहो क्योंकि हमने मंजिल का
हर एक ख़्वाब बड़ी मेहनतों से पाला है

रिश्तों की डोर वो क्या जाने
जिसने बिखरे रिश्तों को नही देखा
यारों का शोर वो क्या जाने
जिसने सूनी शामों को नही देखा
नही देखी हो जिसने रातें जागकर
वो दीदार सुबह का क्या जाने
क्या जाने वो जश्न जीत का
कभी हार को जिसने नही देखा

 
यह दिन भी दूसरे आम दिनों से अलग नहीं था। क और ख चाय पीने टपरी पर पहुँचे और फिर चाय का इंतजार करते हुए बातचीत का सिलसिला चल निकला। चाय पीने के दौरान बात देश के मोटर व्हीकल एक्ट में आये बदलावों की तरफ मुड़ गयी। चालान में की गई बढ़ोत्तरी सही है या नहीं? इससे भ्रष्टाचार बढ़ेगा या नहीं? ऐसे कई मुद्दों पर बातों की जलेबियाँ छानी जा रही थी। सभी लोग इस चर्चा में मशगूल थे। चाय की भाप के साथ सिगरेट का धुँआ मिल रहा था। कश लिए जा रहे थे। चाय की चुस्कियाँ ली जा रही थी। कई महानुभव दोनों का रसवादन एक साथ कर रहे थे। और इन सबके बीच चर्चा बदस्तूर जारी थी। चाय बनाने वाला भी बीच बीच में चर्चा में भाग लेता हुआ अपने एक्सपर्ट कमेंट से लोगों का हौसला बढ़ा रहा था

तेवरी की प्रेरणास्रोत भले ही ग़ज़ल रही हो, परन्तु वह आज शिल्प व कथ्य की दृष्टि से गीत के अधिक करीब है।
ग़ज़ल का हर शेर जहाँ स्वयं में ‘मुकम्मल’ होता है, वहां तेवरी का हर तेवर आपस में अन्तरसंबंधित होता है।
भावान्वति में एकरसता होती है, निरन्तरता होनी है। अरूण लहरी की यह तेवरी, एक बेरोजगार का
सरकार को खुला-पत्रा प्रतीत होता है। हर तेवर एक माला की तरह आपस में गुथा हुआ है-
हर नैया मंझधार है प्यारे
टूट गयी पतवार है प्यारे।
हर कोई भूखा नंगा है
ये कैसी सरकार है प्यारे।   
शिक्षा पाकर बीए , एमए
हर कोई बेकार है प्यारे।

इक शून्य से ये जन्मी और,विराटता है इसने पाई ,
ये सृष्टि कहाँ से चली,और कहाँ तक हमें ले आई ,
उत्थान,पतन,अमरत्व की,अजब सी ये कहानियां ,
रीतों,गीतों की जीवंत,खिलखिलाती हुई जवानियाँ ,
कुछ-कुछ तुमने भी समझा है,और कुछ-कुछ मैंने भी जाना है।

★★★★★

इजाजत दें... फिर मिलेंगे..
 शुभ संध्या
🙏
"मीना भारद्वाज"













10 comments:

  1. बेहतरीन प्रस्तुति..
    आभार...
    सादर....

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  2. रिश्तों की डोर वो क्या जाने
    जिसने बिखरे रिश्तों को नही देखा..

    विविध विषयों को समाहित की हुई श्रेष्ठ, सुंदर एवं मनभावन प्रस्तुति मीना दी..
    प्रणाम।

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति

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  4. बहुत सुंदर और संदेशात्मक रचनाएँ है मीना दी।
    बहुत अच्छी भूमिका के साथ शानदार प्रस्तुति।

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  5. रोचक संकलन। मेरी रचना को इस संग्रह में जगह देने के लिए शुक्रिया।

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  6. सुंदर प्रस्तुति

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  7. सुंदर प्रस्तुति आभार आपका

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  8. वाह बहुत सुंदर प्रस्तुति
    सभी रचनाएँ उत्तम है सभी रचनाकारों को खूब बधाई
    मेरी रचना को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार
    सादर नमन

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  9. सुंदर मनभावन भुमिका सुंदर लिंक ।
    बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  10. मीना भारद्वाज जी "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में " मेरी कविता " कुछ-कुछ जाना है " को स्थान देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ! 🙏 😊

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