Sunday, September 19, 2021

766..दो गज जमीन के मोहताज हैं ..... बहादुरशाह 'ज़फर'

सादर नमस्कार
अंतिम मुगल बादशाह की एक हृदयस्पर्शी रचना
अंग्रेजों ने उन्हे बहुत सताया उनके अंतिम अल्फ़ाज़
अंग्रेजों को चेतावनी देते हुए उन्होंने कहा था

हिंदिओं में बू रहेगी जब तलक ईमान की, 
तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की।


लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में।

बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।

कह दो इन हसरतों से, कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।

एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।

दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।

कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,
...
उनकी अंतिम इच्छा भी, उन्हें हिंदुस्तान में दफनाया जाए
पर उन्हें रंगून (म्यामार) में दफनाया गया

प्रस्तुत है आज की एकल रचना 

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