Tuesday, May 5, 2020

345..एक मित्र डॉक्टर से बात हुई उसने कहा...लोग घर पर हैं खर्चे कम हो रहे हैं

आज हम शहर घूमें
कही कोई ख़ौफ नही
एक मित्र डॉक्टर से बात हुई
उसने कहा...लोग घर पर हैं
खर्चे कम हो रहे हैं
बाजार में मिलने वाली वस्तुएं घर पर
ही बनाई और खाई जा रही है
लोग बीमार कम पड़ रहे हैं
सारे नर्सिंग होम खाली है..
अब तक ठीक है
लापरवाही करेंगे लोग तो
 लगेगा एक प्रश्न चिन्ह...

देखें रचनाएँ आज की...

ये उन दिनों की बात है जब हम मिले पहली दफा स्टेशनपर अनजान से दूसरी दफा ताजमहल कितनी मन्नतों के बाद ये दिन आया था तुम और ताजमहल पास ही ,सपना लग रहा जैसे 


आओ आज कतरनों से कविताएं रचते हैं 
और मिलकर कचरों से कहानियाँ गढ़ते हैं।
.....
नज़रें हो अगर तूलिका तो ... कतरनों में कविताएं और ...
कचरों में कहानियाँ तलाशने की आदत-सी हो ही जाती है ।


पति की उलाहना से बचने के लिए सुमन ने ड्राइविंग तो सीख ली,  मगर भीड़ भरी सड़कों पर गाड़ी चलाते हुए उसके हाथ-पाँव फूल जाते।आज बेटी को स्कूल से लाते समय उसे दूर चौराहे पर भीड़ दिखी तो उसने स्पीड स्लो कर दी।
"मम्मा ! स्पीड क्यों स्लो कर दी आपने" ? बेटी  झुंझलाकर बोली तो सुमन बोली "बेटा !आगे की भीड़ देखो!वहाँ पहुँचकर क्या करुँगी, मुझे डर लग रहा है, छि!  मेरे बस का नहीं ये ड्राइविंग करना"


ढॅूढते हो छायीं पेड़ को उखाड़कर,
बने हैं कई मकान रिश्ते बिगाड़कर,

तालीम  भी तुमसे बदनाम हो गयी,
पायी है डिग्री जो तुमने जुगाड़कर,

चंपा फूल ने मुझे सदा सम्मोहित किया... बचपन से मुझे इससे इश्क है... हमारे घर में चंपा का पेड़ था। जब से होश संभला... 1973 तक इससे सारी बातें साझा करती रही... उसके बाद शहर बदल गया , इसका साथ छूट गया... परन्तु कहीं दिख जाता था तो कुछ देर के लिए ही सही मुझे ठमका ही लेता। 1994 के 29 अगस्त को हम पटना रहने आये। पटेल नगर पटना के जिस मकान में मैं रहती थी , वहाँ भी इस फूल का बड़ा पेड़ था.. एक बार सड़क चौड़ीकरण में उस पेड़ को जड़ समेत काट देना पड़ा.. जिस समय वह पेड़ कट रहा था , वहाँ मुझसे खड़ा नहीं रहा गया.. कटे पेड़ की टहनियाँ आग में जलती तो रौंगटे खड़े हो जाते.. मोटा तना सूख रहा था.. एक दिन यह भी जल जाएगा रोज मुझे रुंआसा करता। कुछ दिनों के बाद ,एक दिन अचानक उस सूखे तने में से पौधा निकल आया.. जिसे हम पुनः लगा सके। 




रात के अंतिम पहर में धुँधले पड़ते तारों में तलाशती है अपनों के चेहरे। ऐसा लगा जैसे एक-एक कर साथ छोड़ रहे हैं उसका और वह ख़ामोशी से खड़ी सब देख रही है। एक आवाज़ उसे विचलित कर रही है। "हक नहीं तुम्हें कुछ भी बोलने का। ज्ञान के भंडारणकर्ता हैं न,
समझ उड़ेलने को। 
तुम क्यों आपे से बाहर हो रही हो। तुम्हें बोलने की 
आवश्यकता नहीं है।"
....
बस
कल फिर..
सादर

6 comments:

  1. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति आदरणीया दीदी सभी रचनाएँ बेहतरीन चुनी है आपने. नये रचनाकारो को तलाशना उन्हें मंच पर स्थान देना आपका यह क़दम सराहना से परे है. मेरी लघुकथा को मंच पर स्थान देने हेतु तहे दिल से आभार.

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति। नये और खूबसूरत ब्लाग।।
    बहुत बहुत बधाई।

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  4. आपका आभार मेरी रचना/विचार को मंच पर साझा करने के लिए ...

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  5. सस्नेहाशीष व असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार आपका छोटी बहना

    सराहनीय प्रस्तुतीकरण

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  6. उत्कृष्ट रचनाओं से सजा लाजवाब मंच ...
    मेरी रचना को यहाँ स्थान देने हेतु अत्यंत आभार एवं हृदयतल से धन्यवाद।

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