यम घंट योग में
दीपदान सफल रहा
नहीं दिखने वाले भी कल दिखे
आभार उन सभी को
अब चलें रचनाओं की ओर...
दीपदान सफल रहा
नहीं दिखने वाले भी कल दिखे
आभार उन सभी को
अब चलें रचनाओं की ओर...
बिखर ही जाना था,
सॅभल कहाँ पाते।
वो जिस तरह से बदला,
बदल कहाँ पाते।।
कुछ ऐसी बात थी जिसने,
मुझे झुकने न दिया;
जमीर बेच के वैसे भी,
चल कहाँ पाते।
मोहन मधुर बजाओ बंशी,
प्रेम मगन हो इतराऊँ
देख देख पावन छवि तेरी
मन ही मन मैं शरमाऊँ
अपलक राह तुम्हारी देखूँ
हे कान्हा तुम आ जाओ
टेर सुनो अब मेरी कान्हा
यूँ मुझको मत तड़पाओ छेड़
दो दिल के तार हरि
ओ गीत खुशी के मैं गाऊँ
मेरे अंतस के मनाकाश पर
दूर क्षितज की रक्तिम रेखा पर हर सुबह
स्वर्ण बिंदु से तुम उदित हो जाते हो !
नहीं जानती भोर तुम्हारे उदित होने से होती है
या तुम मेरे जीवन को आलोकित करने के लिए
भोर की प्रतीक्षा करते हो !
दीवारों के कान होते हैं
एक पुरानी कहावत है
किंतु अब दरवाज़े देखने भी लगे हैं
उनके पास आंखें जो हो गई हैं
चलन बदल गया है
पहले नहीं लगी होती थी कुंडी
सिर्फ़ उढ़के होते थे दरवाज़े
कोई भी खोल के
घर के अंदर प्रवेश कर सकता था
घर में बंद हुआ अब
बनता मानव दास
सृष्टि लेती साँस अब
हुआ अभिमान ह्रास
सीख लो अब समय से
करो कुछ सदविचार
बंजर होती धरती
..
आज बस इतना ही
कल फिर
सादर
..
आज बस इतना ही
कल फिर
सादर
बेहतरीन..
ReplyDeleteसच में
दो नए ब्लाग दिखे..
आभार..
सादर...
बहुत सुन्दर रचनाएं यशोदा जी ! मेरी रचना को आज के संकलन में स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार ! सप्रेम वन्दे !
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