Saturday, July 13, 2019

51..खोल पंख फिर उड़ो गगन मेंं....


स्नेहाभिवादन !
सांध्य दैनिक मुखरित मौन का तीसरा अंक 
सप्ताहांत की सांध्य वेला में आज की प्रस्तुति 
आपके समक्ष पेश है -–-

अपना अपना सपना देखो
उन सपनों में अपना देखो
तुझे सजन मिलना मुमकिन तब
सदा खोज तू उसे स्वजन में
खोल पंख फिर उड़ो गगन में

कविता रोटी नहीं देती। रोटी को बाँट कर खाने की तमीज देती है। रोटी को झपटने का उकसावा कोई और ताकत देती है। तमीज और  झपटमारी में टकराव होता रहता है। कविता इस झपटमारी उकसावा के विरुद्ध आत्म-संशय के व्यूह से बाहर निकलने का धीरज देती है।

एक दशक पहले मिला था उससे मेरे साथ ही कॉलेज में पढ़ाई करती थी। उसके बाद कुछ महीने पहले उसे वाराणसी के घाट पर बैठे देखा, एक बार में उसे पहचान नहीं सका पहचानता भी कैसे हर समय मुस्कान का आवरण ओढ़े रहने वाली आज इतनी शांत.. भावहीन चेहरा।

कभी-कभी तो आते हो
नखरे बीस दिखाते हो ।
पानी भी लाते हो कम ।।
बादल भैया बदले तुम ।

जब जी चाहे आते हो
सौ तूफान उठाते हो ।
करते खूब नाक में दम ।।
बादल भैया बदले तुम ।

संवाद तभी तक बातचीत रहती है जब तक हम सहमति और
असहमति में संतुलित बने रहते हैं
अन्यथा असहमती अपने साथ क्रोध लेकर आती हैं और
संवाद खत्म हो जाता हैं।
ऩिदा फ़ाजली साहब ने सही फरमाया हैं...........
बात कम कीजे जहानत को छिपाते रहिये
अजनबी शहर है ये,  दोस्त बनाते रहिये
दुश्मनी लाख सही, ख़त्म  ना कीजे रिश्ता
दिल मिले ना मिले, हाथ मिलाते रहिये

*******
यशोदा...







4 comments:

  1. बेहतरीन प्रस्तुति 👌,शानदार रचनाएँ,सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनाएँ
    सादर

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  2. वाह बहुत सुन्दर । जारी रखिये।

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  3. अति सुन्दर प्रस्तुति

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  4. बहुत सुंदर प्रस्तुति मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार यशोदा जी

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