सांध्य दैनिक का दूसरा दिन
सादर अभिवादन..
आज बहन अनीता को आना था
शिड्यूल शाम का है
अंदाजा नहीं होगा
आ जाएगी समझ....धीरे से...
चलिए हमें ही झेल लीजिए...
आज की अब तक प्रकाशित रचनाएँ...
सादर अभिवादन..
आज बहन अनीता को आना था
शिड्यूल शाम का है
अंदाजा नहीं होगा
आ जाएगी समझ....धीरे से...
चलिए हमें ही झेल लीजिए...
आज की अब तक प्रकाशित रचनाएँ...
"अभी मैं अपने उच्च पदाधिकारी के साथ आ रहा था तो बहू के कमरे की खिड़की से पर्दा उड़ रहा था और बहू बिना सर पर आँचल रखे पलंग पर बैठी नजर आ रही थी। पदाधिकारी महोदय ने कहा भी प्रसाद जी वो आपकी बहू है ? खिड़की के पर्दे पर कांटी ठोकवा देता हूँ ! तुम कितने साल घूँघट में रही हो...।"
तो जाने क्यूँ ....
वो रिश्ते लड़खड़ाने लगते है
नाम से रिश्ते तो बन्ध जाते है !
पर बेनाम आगे बढ़ते जाते है
न कोई बंधन और न ही कोई सहारा
सच्ची मुस्कान लिए होते है
बहते चिनाब से,
मिल गई, इक किताब!
उम्र, जो है अब ढ़ली,
सोचता था,
गुजर चुकी है,
अब वो गली,
अब न है राफ्ता,
शायद, अब बन्द हो वो रास्ता,
पर, टूटा न था वास्ता,
बालकों की कल्पना-शक्ति के उद्भव, विकास और संवर्द्धन में बाल-साहित्य का अप्रतिम योगदान रहा है. पंचतंत्र, रामायण, महाभारत, जातक-कथाएं, दादी-नानी की कहानियों में उड़ने वाली परियों की गाथा, भूत-प्रेत-चुड़ैलों की चटपटी कहानियां, चन्द्रकान्ता जैसी फंतास और तिलस्म के मकड़जाल का वृत्तांत और स्थानीय लोक कथाओं के रंग में रंगी रचनाएँ सर्वदा से बाल मन को कल्पना के कल्पतरु की सुखद छाया की शीतलता से सराबोर कराती रही हैं.
उजाला और अँधेरा, जैसे एक ही सिक्के के दो पहलु ! पर उजास को जहां ज्ञान, जीवन, उत्साह, शुचिता और जीवंतता का प्रतीक माना जाता है, वहीं अंधकार को निराशा, हताशा, अज्ञान या अमंगल का पर्याय मान लिया गया है। पर एक सच्चाई यह भी है कि आज भी ब्रह्मांड में इसका अस्तित्व उजाले से कहीं ज्यादा है, चाहे उसका विस्तार अनंत अंतरिक्ष में हो, चाहे सागर की अतल गहराइयों में !
प्यार की है फिर ज़रूरत दरमियाँ
हर तरफ हैं नफरतों की आँधियाँ
नफरतों में बांटकर हमको यहाँ
ख़ुद वो पाते जा रहे हैं कुर्सियाँ
खुलके वो तो जी रहे हैं ज़िन्दगी
नफ़रतें हैं बस हमारे दरमियाँ
परिवेश ....
शीशे पर जमी है
धूल ही धूल
पारदर्शी
पानी भी न रहा
शक्ल अब
एक-दूसरे की
आँखों में देखो
शर्म होगी तो
ढक लेंगीं पलकें
पुतलियों को
आदमी की बेशर्मी का
कोई सानी भी न रहा।
टलते-टलते
टलना तो है ही
चलिए ठाले-बैठे टल जाते हैं
तुम तो पीछे ही
पड़ गये दिनों के
दिन तो दिन होते हैं
अच्छे और बुरे
नहीं होते हैं
अच्छी और बुरी
तो सोच होती है
उसी में कुछ ना कुछ
कहीं ना कहीं
कोई लोच होती है
सब की समझ में
सब कुछ अच्छी
तरह आ जाये
ऐसा भी नहीं होता है"
रचनाएँ आज आठ हैं
कल से एक ज्यादा
जोश का क्या है
उबल ही पड़ता है
कहते हैं न
नया मुल्ला कुछ
ज़ियादा ही प्याज खाता है
सादर
दिग्विजय..
परिवेश ....
शीशे पर जमी है
धूल ही धूल
पारदर्शी
पानी भी न रहा
शक्ल अब
एक-दूसरे की
आँखों में देखो
शर्म होगी तो
ढक लेंगीं पलकें
पुतलियों को
आदमी की बेशर्मी का
कोई सानी भी न रहा।
टलते-टलते
टलना तो है ही
चलिए ठाले-बैठे टल जाते हैं
तुम तो पीछे ही
पड़ गये दिनों के
दिन तो दिन होते हैं
अच्छे और बुरे
नहीं होते हैं
अच्छी और बुरी
तो सोच होती है
उसी में कुछ ना कुछ
कहीं ना कहीं
कोई लोच होती है
सब की समझ में
सब कुछ अच्छी
तरह आ जाये
ऐसा भी नहीं होता है"
रचनाएँ आज आठ हैं
कल से एक ज्यादा
जोश का क्या है
उबल ही पड़ता है
कहते हैं न
नया मुल्ला कुछ
ज़ियादा ही प्याज खाता है
सादर
दिग्विजय..
प्याज हर हाल में फायदेमंद होता है
ReplyDeleteहार्दिक आभार आपका
सराहनीय संकलन
व्वाहहहह..
ReplyDeleteआखिर आ ही गया न..
उबाल...
कहावत है..
आ बैल मुझे मार..
सो.. मारा गया बैल बेचारा..
सादर..
सराहनीय संकलन...बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteशामिल करने के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सूत्रों के साथ बहुत सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति 👌
ReplyDeleteसादर
सुन्दर। 'उलूक' के प्याज पर भी नजरे इनायत के लिये आभार दिग्विजय जी।
ReplyDeleteवाह! दैनिक सांध्य प्रस्तुति भी अपने अलग कलेवर और एक रोचक तेवर में! आभार और बहुत बधाई!!!
ReplyDeleteइस बेहतरीन प्रस्तुति में मेरी रचना को भी स्थान देने हेतु आभारी हूँ आदरणीय ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति आदरणीय
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति शानदार लिंकों का चयन ।
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