सादर अभिवादन
आ गई
इस अप्रैल की अंतिम प्रस्तुति
कहना-सुनना क्या है
जितना कहें..और
जितना सुने..
कम ही है..
देखिए इस सप्ताह की हलचल....
तुम थे तो ....
तुम थे तो,
जागे थे नींद से ये एहसास,
धड़कन थी कुछ खास,
ठहरी सी थी साँस,
आँखों नें,
देखे थे कितने ही ख्वाब,
व्याकुल था मन,
व्याप गई थी इक खामोशी,
न जाने ये,
थी किसकी सरगोशी,
तन्हाई में,
तेरी ही यादों के थे पल!
किताबें झाँकती हैं ........ गुलज़ार
किताबें झाँकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाक़ातें नही होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के परदे पर
बड़ी बैचेन रहती है किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जादुई चिराग ....रेखा जोशी
अलादीन का जादुई चिराग कहीं खो गया ,कहाँ खो गया,मालूम नहीं कब से खोज रहा था बेचारा अलादीन ,कभी अलमारी में तो कभी बक्से में कभी पलंग के नीचे तो कभी पलंग के उपर ,सारा घर उल्ट पुलट कर रख दिया ,लेकिन जादुई चिराग नदारद ,उसका कुछ भी अता पता नहीं मिल पा रहा था आखिर गया तो कहाँ गया, धरती निगल गई या आसमान खा गया ,कहां रख कर वह भूल गया |”शायद उसका वह जादुई चिराग उसके किसी मित्र या किसी रिश्तेदार के यहाँ भूल से छूट गया है”|यह सोच वह अपने घर से बाहर निकल अपने परिचितों के घरों में उस जादुई चिराग की खोज में निकल पड़ा ,लेकिन सब जगह से उसे निराशा ही हाथ लगी
आदतन रो लेता हूँ अब ...अमित 'मौन'
दिन दुश्मन हुए अब
रातें बड़ा सताती हैं
करवटें बदल लेता हूँ
जब नींद नही आती है
वक़्त बेवक़्त ये यादें
बिछड़ों से मिला लाती हैं
समझाया दिल को बहुत मगर
ये आँखें कहाँ समझ पाती हैं
चलते-चलते एक खबर
सुमित्रानन्दन पंत
के हिमालय
देख देख
कर भावुक
हो जाते हैं
यहाँ की
आबो हवा
से ही लोग
पैदा होते
ही योगी
हो जाते है
छोटी छोटी
चीजें फिर
किसी को
प्रभावित नहीं
करती यहाँ
इति शुभम्
यशोदा
आ गई
इस अप्रैल की अंतिम प्रस्तुति
कहना-सुनना क्या है
जितना कहें..और
जितना सुने..
कम ही है..
देखिए इस सप्ताह की हलचल....
तुम थे तो ....
तुम थे तो,
जागे थे नींद से ये एहसास,
धड़कन थी कुछ खास,
ठहरी सी थी साँस,
आँखों नें,
देखे थे कितने ही ख्वाब,
व्याकुल था मन,
व्याप गई थी इक खामोशी,
न जाने ये,
थी किसकी सरगोशी,
तन्हाई में,
तेरी ही यादों के थे पल!
किताबें झाँकती हैं ........ गुलज़ार
किताबें झाँकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाक़ातें नही होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के परदे पर
बड़ी बैचेन रहती है किताबें
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
जादुई चिराग ....रेखा जोशी
अलादीन का जादुई चिराग कहीं खो गया ,कहाँ खो गया,मालूम नहीं कब से खोज रहा था बेचारा अलादीन ,कभी अलमारी में तो कभी बक्से में कभी पलंग के नीचे तो कभी पलंग के उपर ,सारा घर उल्ट पुलट कर रख दिया ,लेकिन जादुई चिराग नदारद ,उसका कुछ भी अता पता नहीं मिल पा रहा था आखिर गया तो कहाँ गया, धरती निगल गई या आसमान खा गया ,कहां रख कर वह भूल गया |”शायद उसका वह जादुई चिराग उसके किसी मित्र या किसी रिश्तेदार के यहाँ भूल से छूट गया है”|यह सोच वह अपने घर से बाहर निकल अपने परिचितों के घरों में उस जादुई चिराग की खोज में निकल पड़ा ,लेकिन सब जगह से उसे निराशा ही हाथ लगी
आदतन रो लेता हूँ अब ...अमित 'मौन'
दिन दुश्मन हुए अब
रातें बड़ा सताती हैं
करवटें बदल लेता हूँ
जब नींद नही आती है
वक़्त बेवक़्त ये यादें
बिछड़ों से मिला लाती हैं
समझाया दिल को बहुत मगर
ये आँखें कहाँ समझ पाती हैं
चलते-चलते एक खबर
सुमित्रानन्दन पंत
के हिमालय
देख देख
कर भावुक
हो जाते हैं
यहाँ की
आबो हवा
से ही लोग
पैदा होते
ही योगी
हो जाते है
छोटी छोटी
चीजें फिर
किसी को
प्रभावित नहीं
करती यहाँ
इति शुभम्
यशोदा
सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteइस सुंदर प्रस्तुति में सहभागी बनाने हेतु आभारी हूँ आदरणीय । शुभप्रभात व शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिंक्स से सुसज्जित मुखरित मौन।
Deleteवाहः
ReplyDeleteसुन्दर मुखरित मौन अंक। आभार यशोदा जी 'उलूक' के एक पुराने पन्ने को जगह देने के लिये।
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