सादर अभिवादन
प्रेम दिवस का खात्मा
फिर भी बाकी है
बाती की गर्मी
चलेगा अभी कुछेक दिन और
लगभग होली तक...
चलिए चलें देखें इस सप्ताह क्या है....
हो दैय्या रे दैय्या चढ़ गए पापी बिछुवा....
" सुनो किसी ओझा को जानते हो "
" क्या "
" समझ नहीं आया क्या किसी झाड़ फूंक वाले को जानते हो "
" मुझसे झगड़ा कर , इतना सूना कर तुम्हारा मन नहीं भरा क्या अब मुझपे जादू टोना भी करवाओगी "
" भूत उतरवाना है सर से "
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
आईए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
मीठी यादों वाली खिड़की और लोक की यादें
शब्दों का सफ़र- सोचती हूँ तो उन स्मृतियों में कितने सुंदर शब्द हुआ करते थे जिनकी अब सिर्फ यादे हैं. नाना जी अमरुद को हमेशा बिहीं कहा करते थे. कुँए से पानी निकालने वाली रस्सी को उघानी कहा जाता था और ताला चाबी को कुलुप और उघन्नी कहा जाता था. हम बाबा और नाना को नन्ना कहा जाता था. बिट्टा, लल्ला जैसे रस में भीगे हुए लगते थे. ‘बिट्टा तुम किते जाय रई’ अगर कहीं से कोई पूछ ले तो लगता है निष्प्राण होती देह में रक्त संचार बढ़ गया हो. यह है लोक से जुड़े अपनेपन की ऊष्मा का असर.
मंथन !....
पात-डालियों की जिस्मानी मुहब्बत,अब रुहानी हो गई,
मौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
बोल गर्मी खा गये पातियों के,देख पतझड़ को मुंडेर पर,
चेहरों पे जमी थी जो तुषार, अब वो पानी-पानी हो गई।
सृजन की वो कथा जिसे,सृष्टिपोषक सालभर लिखते रहे,
पश्चिमी विक्षोभ की नमी से पल मे, खत्म कहानी हो गई।
है कैसी जुदाई...
भटकती रूहों को है पास आना ,
आंचल तुम्हारा है वो आशियाना ;
पथिक का नहीं है कोई ठिकाना-
मिलन की चाहत,है कैसी जुदाई?
उखड़ती सांसें वो - तरसी निगाहें-
तुम्हें पुकारे जो बहे अश्रुधारा ;
अगन जला, है अनंत में समाना
बसंत की आस, है कैसी जुदाई ?
"प्यार का दिन "....
प्यार हो जाये तो ,इस प्यार का इजहार न कर
शाक से टूट के गुंचे भी कभी खिलते है
रात और दिन भी जमाने में कभी मिलते हैं
छोड़ दे जाने दे तकदीर से तकरार न कर "
आखरी कब तक...
यूं वेकसूर को हर ले जाएगी मृत्यु आखरी कब तक
हंसते खेलते परिवार पर तुषारपात आखरी कब तक
कौन आया वो मौत का सौदागर इन सुंदर वादियों में
बिना मोल का ले जाना जारी रहेगा आखरी कब तक।
प्रेम दिवस उलूक के साए में
हैं एक जैसे
बहुत से
गिरगिट
रंग बदलते
चले जाते हैं
इंद्रधनुष
बनने की
चाह में
पर उन्हे
पता ही
नहीं चल
पाता है
कि वो कब
कुकुरमुत्ते
हो गये
बहुत हो गई बक-बक
अब चलें कल रविवार है
बासी त्योहा भी मनाना है
यशोदा
प्रेम दिवस का खात्मा
फिर भी बाकी है
बाती की गर्मी
चलेगा अभी कुछेक दिन और
लगभग होली तक...
चलिए चलें देखें इस सप्ताह क्या है....
हो दैय्या रे दैय्या चढ़ गए पापी बिछुवा....
" सुनो किसी ओझा को जानते हो "
" क्या "
" समझ नहीं आया क्या किसी झाड़ फूंक वाले को जानते हो "
" मुझसे झगड़ा कर , इतना सूना कर तुम्हारा मन नहीं भरा क्या अब मुझपे जादू टोना भी करवाओगी "
" भूत उतरवाना है सर से "
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
आईए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
मीठी यादों वाली खिड़की और लोक की यादें
शब्दों का सफ़र- सोचती हूँ तो उन स्मृतियों में कितने सुंदर शब्द हुआ करते थे जिनकी अब सिर्फ यादे हैं. नाना जी अमरुद को हमेशा बिहीं कहा करते थे. कुँए से पानी निकालने वाली रस्सी को उघानी कहा जाता था और ताला चाबी को कुलुप और उघन्नी कहा जाता था. हम बाबा और नाना को नन्ना कहा जाता था. बिट्टा, लल्ला जैसे रस में भीगे हुए लगते थे. ‘बिट्टा तुम किते जाय रई’ अगर कहीं से कोई पूछ ले तो लगता है निष्प्राण होती देह में रक्त संचार बढ़ गया हो. यह है लोक से जुड़े अपनेपन की ऊष्मा का असर.
मंथन !....
पात-डालियों की जिस्मानी मुहब्बत,अब रुहानी हो गई,
मौन कूढती रही जो ऋतु भर, वो जंग जुबानी हो गई।
बोल गर्मी खा गये पातियों के,देख पतझड़ को मुंडेर पर,
चेहरों पे जमी थी जो तुषार, अब वो पानी-पानी हो गई।
सृजन की वो कथा जिसे,सृष्टिपोषक सालभर लिखते रहे,
पश्चिमी विक्षोभ की नमी से पल मे, खत्म कहानी हो गई।
है कैसी जुदाई...
भटकती रूहों को है पास आना ,
आंचल तुम्हारा है वो आशियाना ;
पथिक का नहीं है कोई ठिकाना-
मिलन की चाहत,है कैसी जुदाई?
उखड़ती सांसें वो - तरसी निगाहें-
तुम्हें पुकारे जो बहे अश्रुधारा ;
अगन जला, है अनंत में समाना
बसंत की आस, है कैसी जुदाई ?
"प्यार का दिन "....
प्यार हो जाये तो ,इस प्यार का इजहार न कर
शाक से टूट के गुंचे भी कभी खिलते है
रात और दिन भी जमाने में कभी मिलते हैं
छोड़ दे जाने दे तकदीर से तकरार न कर "
आखरी कब तक...
यूं वेकसूर को हर ले जाएगी मृत्यु आखरी कब तक
हंसते खेलते परिवार पर तुषारपात आखरी कब तक
कौन आया वो मौत का सौदागर इन सुंदर वादियों में
बिना मोल का ले जाना जारी रहेगा आखरी कब तक।
प्रेम दिवस उलूक के साए में
हैं एक जैसे
बहुत से
गिरगिट
रंग बदलते
चले जाते हैं
इंद्रधनुष
बनने की
चाह में
पर उन्हे
पता ही
नहीं चल
पाता है
कि वो कब
कुकुरमुत्ते
हो गये
बहुत हो गई बक-बक
अब चलें कल रविवार है
बासी त्योहा भी मनाना है
यशोदा
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
ReplyDeleteलाओ, सुलगाओ कोई जोश-ए-ग़ज़ब का अंगार
कुछ ऐसा ही माहौल है पिछले दो दिनों से। खैर अब तो जागे जरा राजनैतिक जगत के ये विधाता।
पता है इनकी जुबां का एक्शन मोड कहाँ खो गया है।
पथिक को इस मंच पर स्थान देने की लिये हृदय से आभार यशोदा दी। सभी को प्रणाम।
बहुत ही बेहतरीन रचनाएं सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति , आभार आपका, यशोदा जी।
ReplyDeleteबेहतरीन रचना संकलन एवं प्रस्तुति
ReplyDeleteबीते दिन के हुई घटनाओ ने बड़ा गमगीन माहौल कर रखा है देश के वीर सपूतो की शहादत ने मन को व्यथित कर रखा है ,ऐसे में आप का ये मजेदार संकलन थोड़ी राहत दे गया ,सभी रचनाकारो को बधाई ,मेरी रचना को भी शामिल करने के लिए दिल से धन्यवाद यशोदा दी ,सादर नमस्कार आप को
ReplyDeleteमेरी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद |
ReplyDeleteनमन शहीदों को। आभार 'उलूक' को जगह देने के लिये।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति ,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति ।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
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