सादर अभिवादन
गुरुवार से प्रस्तुति बन रही है
शायद कल तक बन जाए
मुखरित मौन साप्ताहिक है न...
नए-पुराने का मेल बन जाएगा
शायद कल तक बन जाए
मुखरित मौन साप्ताहिक है न...
नए-पुराने का मेल बन जाएगा
ये चंचल नदियाँ यूँ बलखाती,लहरातीं ,
पूरी धरती बाहों में समेटे उन्मुक्त बहें ,
चाहे लाख ललक हो निर्बाध भ्रमण की ,
पर आखिर सागर में मिलना पड़ता है ।
भले कहीं भी विचरें ये सारे मुक्त मेघ ,
मन में इक स्वाति बूँद का अहम् लिए ,
पर ये भटकन जब कभी भी बोझ बने ,
तब आखिर में तो बरसना ही पड़ता है ।
कहने को तो पत्रकार हूँ, परंतु देश- दुनिया की खबरों की जगह यह गीतों का संसार मुझे कहीं अधिक भाता है,अब उम्र के इस पड़ाव में । मैं हर उन सम्वेदनाओं की अनुभूति करना चाहता हूँ , जिससे मन के करुणा का द्वार खुले और मैं बुद्ध हो जाऊँ, शुद्ध हो जाऊँ , मुक्त हो जाऊँ, इस दुनिया की हर उस भूख से, छटपटाहट से । बिना किसी शोक, ग्लानि और विकलता के आनंदित मन से निर्वाण को प्राप्त करूँ । अन्यथा रात्रि में यह तन्हाई जगाती ही रहेगी, इन्हीं नगमों की तरह ,
मां, तू जीवन दात्री, तू ही है भगवान,
मुझमें नहीं शक्ति कर पाऊं तेरा गुणगान।
मां, तू ममता की मूरत अतुल्य अनुपम,
किसी भी हाल में तेरी ममता न हो कम।
जो अपने वश में नहीं उसपर क्यों अफसोस करना, विपरीत परिस्थिति
में धैर्य रखने के सिवा कुछ नहीं किया जा सकता...
कल सुबह छोटे लाल जी मुझे फोन कर बोले कि "फूल लाने की
व्यवस्था इसबार आप करा लेंगी...?"
"क्यों क्या हुआ?"
"कल रात में लाने गया था तो मिला नहीं , घर लौट कर आया तो गर्भवती बेटी की तबीयत खराब लगी , डॉक्टर के पास लेकर गया तो डॉक्टर बोली गर्भस्थ जीव पेट में मैला कर दिया है उसे तुरन्त निकालना होगा... अभी सुबह में ऑपरेशन से बेटा हुआ है..
कभी दर्द
कभी खुशी
कभी प्यार
कभी ख्वाब
मैं लिख लिया करती थी,
टूटे फूटे शब्द ही सही,
लगता था,
जी लिया दिन ।
समंदर की लहरों पर हमनें भी पैगाम लिखा,
दर्द को छुपाया ,मोहब्बत को सरे आम लिखा !!
जंग जिंदगी की , क़त्ल अरमानों का हुआ,
सुर्खरु जनाजे में नाम,दफ़न प्यार का अफ़साना हुआ !!
चौपाले सूनी पड़ी, 'धूनी' 'बाले' कौन।
सर्द हवा से हो गए, रिश्ते-नाते मौन।।
गज भर की है गोदड़ी, कैसे काटें रात।
आग जला करते रहे, 'होरी' 'गोबर' बात।।
छोड़ रजाई अब उठो, सी-सी करो न जाप।
आओ खिलती धूप से, ले लो थोड़ा ताप।।
उलूक के कबाड़ से
नजर
मत आओ
कम्पनी की टोपी
किसी दूसरे के
सर पर रख जाओ
सन्यासी
हो गये हैं
वो तो कब के
जैसी खबर
तुरंत फैलाओ
जाओ
अब यहाँ
क्या बचा है
किसी और के
सपनो में अपना
सिर मत खपाओ ।
उलूक के कबाड़ से
नजर
मत आओ
कम्पनी की टोपी
किसी दूसरे के
सर पर रख जाओ
सन्यासी
हो गये हैं
वो तो कब के
जैसी खबर
तुरंत फैलाओ
जाओ
अब यहाँ
क्या बचा है
किसी और के
सपनो में अपना
सिर मत खपाओ ।
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आज्ञा दें
सादर
यशोदा
सादर
यशोदा
चाहे लाख ललक हो निर्बाध भ्रमण की ,
ReplyDeleteपर आखिर सागर में मिलना पड़ता है ।
जी दी प्रणाम
आत्मसात करने वाली हैं यें पंक्तियां..
मरी अनुभूतियों को विशेष स्थान देने के लिये हृदय से पुनः प्रणाम।
संशोधनःमेरी अनुभूतियों
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति शानदार रचनाएं
ReplyDeleteसस्नेहाशीष संग शुभकामनाएं छोटी बहना
ReplyDeleteबड़ी खुशी मिलती है जब छोटी बहना द्वारा शब्द चयनित होते हैं
आभार यशोदा जी। आप भी कुछ ना कुछ कबाड़ से उठा ही लाती हैं और कोयले को हीरों के बीच सजाती हैं। वैसे 'उलूक' का सबसे ज्यादा उठाया गया कबाड़ है ये। अभी तक लगभग 4700 लोगों ने कोशिश की है इसे उठाने की :) । पुन: आभार आज के मुखरित मौन की एक सुन्दर प्रस्तुति में शामिल करने के लिये।
ReplyDeleteसहृदय आभार यशोदा जी, बहुत ही सुन्दर संकलन और प्रस्तुति,
ReplyDeleteशुभ प्रभात आदरणीया
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर मुखरित मौन की प्रस्तुति 👌
मेरी रचना को स्थान देने के लिय, सह्रदय आभार आदरणीय
सादर
बहुत सुंदर,दी एक क़दम मौन अब मुखर हो रहा है।
ReplyDeleteसभी रचनाएँ बहुत सुंदर है पठनीय और सराहनीय ।
बधाई दी एक सुंदर अंक के लिए।
Very Nice.....
ReplyDeleteबहुत प्रशंसनीय प्रस्तुति.....
सुंदर प्रस्तुति शानदार रचनाएं...!!
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