Thursday, March 15, 2018

दिल को जीने का सहारा भी न दें....कुसुम कोठारी


माना उम्मीद पर जीने से हासिल कुछ नही लेकिन 
पर ये भी क्या,कि दिल को जीने का सहारा भी न दें।

उजडने को उजडती है बसी  बसाई बस्तियां 
पर ये भी क्या के फकत एक आसियां भी ना दे। 

खिल के मिलना ही है धूल मे जानिब नक्बत
पर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।

माना डूबी है कस्तियां किनारों पे मगर
पर यूं भी क्या किसी को अश़्फाक भी न दे।

बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेजार 
पर ये क्या उक़ूबत तिश्नगी मे पानी भी न दे।

मिलने को तो मिलती रहे दुआ ए हयात रौशन 
पर ये क्या के अजुमन को आब दारी भी न दे ।

-कुसुम कोठारी

नक्बत=दुर्भाग्य, अश़्फाक =सहारा, आब ए चश्म = आंसू,
उक़ूबत =सजा,तिश्नगी =प्यास

5 comments:

  1. सादर आभार कविता जी

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  2. आदरणीय सखी यशोदा जी को मेरी रचना लिंक करने के लिये सादर आभार।

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  3. खूबसूरत.... बहुत खूब

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १९ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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  5. खिल के मिलना ही है धूल मे जानिब नक्बत
    पर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।
    वाह!!!
    सुन्दर शब्द विन्यास...
    बहुत सुन्दर रचना...

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