माना उम्मीद पर जीने से हासिल कुछ नही लेकिन
पर ये भी क्या,कि दिल को जीने का सहारा भी न दें।
उजडने को उजडती है बसी बसाई बस्तियां
पर ये भी क्या के फकत एक आसियां भी ना दे।
खिल के मिलना ही है धूल मे जानिब नक्बत
पर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।
माना डूबी है कस्तियां किनारों पे मगर
पर यूं भी क्या किसी को अश़्फाक भी न दे।
बरसता रहा आब ए चश्म रात भर बेजार
पर ये क्या उक़ूबत तिश्नगी मे पानी भी न दे।
मिलने को तो मिलती रहे दुआ ए हयात रौशन
पर ये क्या के अजुमन को आब दारी भी न दे ।
-कुसुम कोठारी
नक्बत=दुर्भाग्य, अश़्फाक =सहारा, आब ए चश्म = आंसू,
उक़ूबत =सजा,तिश्नगी =प्यास
सादर आभार कविता जी
ReplyDeleteआदरणीय सखी यशोदा जी को मेरी रचना लिंक करने के लिये सादर आभार।
ReplyDeleteखूबसूरत.... बहुत खूब
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक १९ मार्च २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
खिल के मिलना ही है धूल मे जानिब नक्बत
ReplyDeleteपर ये क्या के खिलने को गुलिस्तां भी न दे।
वाह!!!
सुन्दर शब्द विन्यास...
बहुत सुन्दर रचना...