रुको ! जरा ठहरो।
मत डालो खलल मेरी नींदों में
अभी ही तो मैंने सपनों के बीज बोए हैं
अभी ही तो ख्वाबों के अंकुर फूटे हैं
उम्मीदों की नर्म गीली मिट्टी पर
अभी ही तो हसरतों की कलियां गुनगुनाई हैं
तितलियाँ खुशियों को अभी उड़ने तो दो
रंगत उपवन की निखर जाने दो
मत डालो खलल मेरी नींदों में
अभी ही तो मैंने सपनों के बीज बोए हैं
महकने को आतुर है गुलशन मेरे ख्वाबों का
बहारों को अपना सौरभ छलकाने तो दो
मेरे सपनों ने अभी ही तो ली है अंगड़ाई
कुछ पल उन्हें थोड़ा बहक जाने तो दो
मत डालो खलल मेरी नींदों में
अभी ही तो मैंने सपनों के बीज बोए हैं
© पूजा
बहुत सुंदर
ReplyDeleteसपने पूरे होते हैं लगन से संकल्प से ...
ReplyDeleteसपनों की परवाज़ लाजवाब है ... सुंदर रचना ...
वाह सुंदर बहकते स्वप्नों के अंकुर
ReplyDeleteसतत प्रवाह अंकुरण ...👌👌👌👌👌
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक २५ जून २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
कुनमुनाते सपनों की सुंदर दास्ताँ !!!!!
ReplyDeleteवाह!बहुत खूब !
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन आपातकाल की याद में ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteमत डालो खलल मेरी नींदों में
ReplyDeleteअभी ही तो मैंने सपनों के बीज बोए हैं
अभी ही तो ख्वाबों के अंकुर फूटे हैं
उम्मीदों की नर्म गीली मिट्टी पर....वाह