हर कुछ कभी न कभी सुंदर हो जाता है
बसंत और हमारे बीच अब बेमाप फासला है
तुम पतझड़ के उस पेड़ की तरह सुंदर हो
जो बिना पछतावे के
पत्तियों को विदा कर चुका है
थकी हुई और पस्त चीजों के बीच
पानी की आवाज जिस विकलता के साथ
जीवन की याद दिलाती है
तुम इसी आवाज और इसी याद की तरह
मुझे उत्तेजित कर देती हो
जैसे कभी-कभी मरने के ठीक पहले या मरने के तुरंत बाद
कोई अंतिम प्रेम के लिए तैयार खड़ा हो जाता है
मैं इस उजाड़ में इसी तरह खड़ा हूँ
मेरे शब्द मेरा साथ नहीं दे पा रहे
और तुम सूखे पेड़ की तरह सुंदर
मेरे इस जनम का अंतिम प्रेम हो।
-चंद्रकांत देवताले
बढ़िया रचना
ReplyDeleteआभार
सादर
तुम पतझड़ के उस पेड़ की तरह सुंदर हो
ReplyDeleteजो बिना पछतावे के
पत्तियों को विदा कर चुका है---वाह बहुत ही गहरी रचना, गहरी पंक्तियां।
वाह ,प्रिय दिव्या ! आभार !आभार ! अहोभाग्यम !! जो चन्द्रकान्त देवताले जी की रचना से मंच का श्रृंगार हुआ | काव्य शिरोमणि देवताले जी की पुण्य स्मृति को कोटि कोटि नमन
ReplyDeleteरूखे से मौसम में सौंदर्य का परिचय कराती उत्कृष्ट रचना ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर।
ReplyDeleteसुन्दर रचना!
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