जब चारों ओर,
मौत की दहशत पसरी है,
सुबह- सुबह ही,
सूरज की लालिमा में,
चिताओं की धुआँ,
अपनी कालिमा ले उड़ती है,
फिर धू-धू की लपटों के साथ,
एक अस्तित्त्व भस्मीभूत कर देती है।
धीरे- धीरे मौत का दर्द
दुखी होने का अवसर कहाँ देता है।
एक के बाद एक,पूरा परिवार महामारी में खत्म हो जाता है।
अख़बार में एक ओर,
मौत के आँकड़े, लाशों और चिताओं की
दिल दहलाने वाली तस्वीरें,
और इन सबके बीच एक नसीहत
दुःख और अवसाद से बाहर निकल
जैसे भी हो खुश रहना और इसके साथ ही
मौत के सिलसिले में
बेमन से ज़िन्दगी जीने की
कवायद इंसान करने लगता है।
-प्रो. इन्दु पाण्डेय खण्डूड़ी
जो अपनों को खो बैठता है वह जिंदगी भर का दर्द अपने अंदर समेट लेता है, नसीहत अच्छी हो सकती है लेकिन दूसरों के लिए
ReplyDeleteआज के हालातों का दर्द उमड़ आया है कविता में
अपनो से बिछड़ने का दर्द क्या होता है ये वो ही जान सकता है, जिस पर बीतती है। ये दर्द बहुत अच्छे तरीके से व्यक्त किया है आपने, इंदू दी।
ReplyDeleteमार्मिक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteगहरे तक दर्द दे गई आपकी रचना ।
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