थोड़े से करोड़ों सालों में
सूरज की आग बुझेगी जब
और राख उड़ेगी सूरज से
जब कोई चाँद ना डूबेगा
और कोई ज़मीं ना उभरेगी
दबे बुझे एक कोयले सा
टुकड़ा ये ज़मीं का घूमेगा भटका भटका
मद्धम खाकीस्तरी रोशनी में
मैं सोचता हूँ उस वक़्त अगर
कागज़ पे लिखी एक नज़्म कहीं
उड़ते उड़ते सूरज में गिरे
और सूरज फिर से जलने लगे !
- गुलज़ार
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत नज़्म
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ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुती
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचनाबहुत सुंदर
ReplyDeleteआभार सभी को
ReplyDeleteश्वास चल रही है मुखरित मौन की
सादर
खूबसूरत नज़्म। बहुत आभार यशोदा दीदी, मुखरित मैं को श्वांस डेनेबके लिए आपका बहुत बहुत आभार एवम नमन ।
ReplyDeleteAwesome post !
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सुन्दर भाव!
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