हम मातृ दिवस मनाते हैं,
मां की ममता को सीमित करके
सादर अभिवादन..
बस आज ही
माँ सर्वोपरि है
कल से फिर
ज्यों के त्यों
हो जाएगी माँ
तुझे सलाम...
चलिए रचनाओँ की ओर..
माँ विराट सृष्टि ....सुनीता अग्रवाल "नेह"
लेती आशीष
छू माता के चरण
वट की जटा
माँ नही पास
दुःख में थामे हाथ
उसकी बात
बंधती नही
परिभाषाओं में माँ
विराट सृष्टि
तुम्हें बाँध पाती सपने में! ....... महादेवी वर्मा
तुम्हें बाँध पाती सपने में!
तो चिरजीवन-प्यास बुझा
लेती उस छोटे क्षण अपने में!
पावस-घन सी उमड़ बिखरती,
शरद-दिशा सी नीरव घिरती,
धो लेती जग का विषाद
ढुलते लघु आँसू-कण अपने में!
ममतामयी माँ ...ज्योति सिंह
माँ मेरी माँ
सबकी माँ
जन्म से लेकर
अंतिम श्वास तक
जरूरत सबकी माँ
जीवन की हर
छोटी -छोटी बातों में
याद बहुत आती माँ
बधाई संसार की सभी माताओं को ...डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर
आह दर्द और बेचैनियों को पहचान लेती है
वो बिन बोले ही सारी बातें जान लेती है
माँ का राब्ता बच्चों संग दिल-ओ-जान से
गुज़र जाती है हद्द से जब वो ठान लेती है
संदेह और विश्वास की गलियों में ....रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत बिछाते हो
जाल और फंदे
कैसे हो
उजड्ड-विवेकवान बंदे?
गिलहरी को
अब नहीं रहा
पार्क में
तुम्हारी मूँगफलियों का इंतज़ार
वह तो गूलर कुतर रही है
....
आज बस
कल फिर
सुने ये गीत
बेसन की सोंधी रोटी पर,खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका बासन,चिमटा फुँकनी जैसी माँ
मां की ममता को सीमित करके
सादर अभिवादन..
बस आज ही
माँ सर्वोपरि है
कल से फिर
ज्यों के त्यों
हो जाएगी माँ
तुझे सलाम...
चलिए रचनाओँ की ओर..
माँ विराट सृष्टि ....सुनीता अग्रवाल "नेह"
लेती आशीष
छू माता के चरण
वट की जटा
माँ नही पास
दुःख में थामे हाथ
उसकी बात
बंधती नही
परिभाषाओं में माँ
विराट सृष्टि
तुम्हें बाँध पाती सपने में! ....... महादेवी वर्मा
तुम्हें बाँध पाती सपने में!
तो चिरजीवन-प्यास बुझा
लेती उस छोटे क्षण अपने में!
पावस-घन सी उमड़ बिखरती,
शरद-दिशा सी नीरव घिरती,
धो लेती जग का विषाद
ढुलते लघु आँसू-कण अपने में!
ममतामयी माँ ...ज्योति सिंह
माँ मेरी माँ
सबकी माँ
जन्म से लेकर
अंतिम श्वास तक
जरूरत सबकी माँ
जीवन की हर
छोटी -छोटी बातों में
याद बहुत आती माँ
बधाई संसार की सभी माताओं को ...डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर
आह दर्द और बेचैनियों को पहचान लेती है
वो बिन बोले ही सारी बातें जान लेती है
माँ का राब्ता बच्चों संग दिल-ओ-जान से
गुज़र जाती है हद्द से जब वो ठान लेती है
संदेह और विश्वास की गलियों में ....रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत बिछाते हो
जाल और फंदे
कैसे हो
उजड्ड-विवेकवान बंदे?
गिलहरी को
अब नहीं रहा
पार्क में
तुम्हारी मूँगफलियों का इंतज़ार
वह तो गूलर कुतर रही है
....
आज बस
कल फिर
सुने ये गीत
बेसन की सोंधी रोटी पर,खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका बासन,चिमटा फुँकनी जैसी माँ
सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteमातृ दिवस की शुभकामनाएँ..
ReplyDeleteसादर...
सुंदर लिंक संयोजन । मेरी रचना को स्थान देने हेतु हार्दिक आभार 🙏
ReplyDeleteमेरी रचना को शामिल किया इसके लिए हृदय से आभारी हूँ ,मातृ दिवस की सभी मित्रों को ढेरों बधाई हो ,बेहतरीन प्रस्तुति ,नमस्कार
ReplyDeleteमाँ की ओर से सस्नेहाशीष
ReplyDeleteसुंदर लिंक्स चयन
साधुवाद