सादर अभिवादन।
सांध्य दैनिक
मुखरित मौन की प्रस्तुति में
आपका स्वागत है।
आइये अब आपको आज की
पसंदीदा रचनाओं की ओर ले चलें-
चित्र साभार : गूगल
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
"तुमलोगों को इस देश का विकास पसंद नहीं, विकास के रास्ते में आने वाले बाधाओं को दूर किया ही जाता है। तुम पल भर में धरा से गगन नाप लेती हो.. मनुष्यों के पास पँख नहीं तो वे जड़ हो जायें क्या ? तुम्हारे आश्रय यहाँ नहीं तो और कहीं..।" भूमिगत रेल आवाज चिंघाड़ पड़ी।
टपकते आँसू पाकीज़ा नन्हीं आँखों से
ठहर गयीं धड़कनें बिखर गयीं साँसें
कूद पड़े प्रबल प्रेम के प्रतापी
परिवार के सात अन्य हाथी
अर्पित की सभी ने साँसें अपनी
बचाने अपना एक नन्हा प्यारा साथी
जो गुफ़्तगू मायने समझाता फिरता था
हरेक ख्यालात का
किस्सा-कहानी सा लगता है अब वो
सच में ये हमारी परम्परा तो नहीं है . हमारी परम्परा 'लिंचिंग' की नहीं 'पिंचिंग' की रही है . इसके लिए किसी हथियार, थप्पड़-लातों की ज़रूरत नहीं होती. बस ज़ुबान की ज़रूरत होती है . आप तानों का पिटारा खोलकर , जलीकटी, लगीबुझी सुनाकर किसी को भी मुफ्त में ही चारों खाने चित्त कर सकते हैं . यहाँ पिंचिंग में 'हींग लगे न फिटकडी, रंग आए चोखो', वाली कहावत भी चरितार्थ हो जाती है . और, किसी न्यायिक लफड़े में फंसने की सम्भावना भी बहुत कम होती है . तभी तो सालों बीत जाने के बाद भी पिंचिंग यानि चिकोटी काटने की यह परम्परा बदस्तूर जारी है .
रामायण को पढना सभी के लिए संभव नहीं और अखंड रामायण का पाठ भी सभी को अपने आदर्श राम के चरित्र से उस तरह नहीं जोड़ पाते जिस तरह रामानंद सागर जी की रामायण सभी को जोड़ देती है और इसी कारण आजकल रामलीला के दौरान लोग इसे कहीं घर में तो कहीं विभिन्न समूहों द्वारा किये गए आयोजन में देखने के लिए समय से पहले पहुँच लेते हैं और बाकायदा प्रशाद भी चढाते हैं और ये सब देख यही लगता है कि रामायण बनवाने के लिए रामानंद सागर जी को स्वयं भगवान् ने ही प्रेरणा दी होगी और रामानंद सागर जी को इस पुण्य कर्म के लिए स्वयं भगवान राम ने ही चुना होगा.
आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे अगली प्रस्तुति में।
रवीन्द्र सिंह यादव
शुभ संध्या....
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति..
आभार...
सादर....
ReplyDeleteऔर हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
कविता तो इसे ही कहते हैंं
सरल शब्द पर भाव ऐसा की लगाते रहे उसमें गोता..
इस सुंदर प्रस्तुत के लिये आपका आभार।
सस्नेहाशीष संग हार्दिक आभार भाई
ReplyDeleteशुभ संध्या
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति, मुझे स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय
सादर
बढ़िया संयोजन
ReplyDeleteबढ़िया सामग्री
बढ़िया बेहतरीन प्रस्तुति..
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