सादर अभिवादन
दशहरा गया
दीपावली गई
और अब
देव उठनी भी चली गई
पर नहीं गया तो
वो है कोरोना
सब कह रहे हैं
अतिथि तुम कब जाओगे
मत जाओ....
ये भारत है ..जो भी आया
यहीं का हो कर रह गया
हैजा, पोलियो, टीबी,डिप्थीरिया,
चिकनगुनिया, और डेंगू
अब तुम भी रह जाओ यहीं
हम भरतवासियों के पास
सब का इलाज है...
अब चलिए रचनाओं की ओर...
मत जाओ....
ये भारत है ..जो भी आया
यहीं का हो कर रह गया
हैजा, पोलियो, टीबी,डिप्थीरिया,
चिकनगुनिया, और डेंगू
अब तुम भी रह जाओ यहीं
हम भरतवासियों के पास
सब का इलाज है...
अब चलिए रचनाओं की ओर...
पर जाने क्यों
बहुत डर लग रहा है...
नफ़रत और उन्माद
का रस पीकर मतायी
लाल नरभक्षी चींटियों
के द्वारा
मानव बस्तियों की
घेराबंदी से।
पक्के मकानों में
उपले, न गोरसी
हीटर के तारों से
लाल तपन बरसी
नींद मगर चाहे
स्वप्न की रजाई
मेहँदी रचती हथेली
भाग्य की गाढ़ी लकीरें
ऊँगलियाँ साजें अँगूठी
रीति के बजते मँजीरे
जब शगुन हल्दी लगाती
नीति दूर्वा ने सिखाई
प्रेम का हो रंग पक्का
मैं मानव हूँ दानव नहीं
सम्वेदनाओं से भरा हुआ हूँ
मुझे भी कष्ट होता है
किसी को व्यथित देख |
व्यथा का कारण जान
अनजान नहीं रह सकता
चाँदनी को साथ ले कर
नभ मंडल में चंद्र चितेरा
विहग की टहकार मध्यम
टहनियों के मध्य बसेरा
नीड़ की रक्षा में व्याकुल
आए ना कोई लुटेरा
कुछ वृत्तांत के नहीं होते उपसंहार,
वास्तविकता के आगे जीवन- कथा हार
जाती है हर बार,
कोई रुका नहीं रहता
किसी के लिए,
बस स्मृति जम कर बनाती हैं
हिम युग का संसार
....
बस..
सादर..
....
बस..
सादर..
प्रिय यशोदा अग्रवाल जी,
ReplyDeleteयह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है कि आपने मेरी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" में शामिल की है।
आपको हार्दिक धन्यवाद एवं आभार
- डाॅ शरद सिंह
सभी लिंक्स साहित्यिकता से परिपूर्ण हैं... महत्वपूर्ण हैं।
ReplyDeleteसाधुवाद इस सामग्री को एक स्थान पर उपलब्ध कराने के लिए के लिए!!!
सभी रचनाएं अद्वितीय हैं, सुन्दर संकलन व प्रस्तुति मुखरित मौन को और अधिक प्रभावशाली बनाती हैं, मुझे स्थान देने हेतु ह्रदय से आभार - - नमन सह।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सूत्र चयन । संकलन में सृजन साझा करने हेतु सादर आभार ।
ReplyDeleteसुप्रभात
ReplyDeleteमेरी रचना शामिल करने के लिए आभार सहित धन्यवाद यशोदा जी |
बहुत सुंदर प्रस्तुति
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